ग़ज़ल नूर की - सुनाने जैसी कोई दास्ताँ नहीं हूँ मैं

.
सुनाने जैसी कोई दास्ताँ नहीं हूँ मैं 
जहाँ मक़ाम है मेरा वहाँ नहीं हूँ मैं.
.
ये और बात कि कल जैसी मुझ में बात नहीं    
अगरचे आज भी सौदा गराँ नहीं हूँ मैं.
.
ख़ला की गूँज में मैं डूबता उभरता हूँ   
ख़मोशियों से बना हूँ ज़बां नहीं हूँ मैं.
.
मु’आशरे के सिखाए हुए हैं सब आदाब  
किसी का अक्स हूँ ख़ुद का बयाँ नहीं हूँ मैं.
.
सवाली पूछ रहा था कहाँ कहाँ है तू
जवाब आया उधर से कहाँ नहीं हूँ मैं?
.
परे हूँ जिस्म से अपने मैं ‘नूर’ हूँ शायद
बदन के जलने से उठता धुआँ नहीं हूँ मैं.
.
निलेश नूर 
मौलिक/ अप्रकाशित 

  • Chetan Prakash

    आदाब,'नूर' साहब, सुन्दर  रचना है, मगर 'ग़ज़ल ' फार्मेट में ! 

    "परे हूँ जिस्म से अपने मैं 'नूर' हूँ शायद 

    बदन के जलने से उठता धुआँ नहीं हूँ मैं" 

    आपका क़ाफ़िला वर्तनी की दृष्टि से अशुद्ध है !

  • Nilesh Shevgaonkar

    आ. चेतन प्रकाश जी.
    मैं आपकी टिप्पणी को समझ पाने में असमर्थ हूँ.
    मगर 'ग़ज़ल ' फार्मेट में - इसे किस तरह समझा जाए..
    आपका क़ाफ़िला वर्तनी की दृष्टि से अशुद्ध है  ..इस पर थोड़ा प्रकाश डालेंगे तो कृपा होगी 
    .
    सादर 
      

  • अजय गुप्ता 'अजेय

    अच्छी ग़ज़ल हुई है नीलेश नूर भाई। बहुत बधाई 

  • लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

    आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। सुंदर गजल हुई है। हार्दिक बधाई।

  • Chetan Prakash

    1. आदरणीय 'नूर'साहब,  मेरे अल्प ज्ञान के अनुसार ग़ज़ल का प्रत्येक शेर की विषय - वस्तु अलग होनी चाहिए जबकि उक्त रचना विशेष आत्मगत  है !
    2. क़ाफ़िया,  से मेरा अभिप्राय था। उक्त शेर में 'धुआँ' अशुद्ध है, यह मेरा निवदेन था,आदरणीय  !
  • Nilesh Shevgaonkar

    धन्यवाद आ. अजय गुप्ता जी 

  • Nilesh Shevgaonkar

    धन्यवाद आ. लक्ष्मण धामी जी 

  • Nilesh Shevgaonkar

    आ. चेतन प्रकाश जी,
    //आदरणीय 'नूर'साहब,  मेरे अल्प ज्ञान के अनुसार ग़ज़ल का प्रत्येक शेर की विषय - वस्तु अलग होनी चाहिए जबकि उक्त रचना विशेष आत्मगत  है !//
    ग़ज़ल के सभी अशआर एक ही थीम के भी हो सकते हैं और अलग अलग थीम के भी.. हाँ-ग़ज़ल का कोई शेर किसी दूसरे शेर का मुखोपेक्षी नहीं होना चाहिए और अपने आप में स्वतंत्र कविता होना चाहिये.
    मेरी ग़ज़ल में कोई शेर किसी दूसरे शेर पर निर्भर नहीं है और हर शेर स्वतंत्र है. 
    यदि आप यह मान बैठे हैं कि थीम भी अलग होनी चाहिए तो आप को मुसलसल ग़ज़ल का अध्ययन करना चाहिए.
    चुपके चुपके रात दिन आँसू बहाना याद है (हसरत मोहानी)
    दिल के अरमाँ आँसुओं में बह गए (हसन कमाल)

    आदि को पढने से यह स्पष्ट होगा कि ये ग़ज़लें एक ही सेंट्रल थीम के आसपास कहे गए अशआर हैं.
    .
    //उक्त शेर में 'धुआँ' अशुद्ध है // 
    धुआँ किस तरह अशुद्ध है यह मुझे अब भी स्पष्ट नहीं हुआ .
    आप ग़ज़ल की किसी भी किताब में मिलते जुलते क़वाफ़ी की ग़ज़ल पढ़ लें .. आप को स्पष्टता होगी कि क़वाफ़ी ठीक बरते गए हैं.
    लगभग 700-800 ग़ज़लें कह चुकने के बाद मैं किसी नए शब्द के मात्राभार में गड़बड़ा जाऊं यह तो संभव है लेकिन क़वाफ़ी चुनने में भूल करूँ, ऐसा अब नहीं होता.
    सादर  

     


  • सदस्य कार्यकारिणी

    शिज्जु "शकूर"

    आदरणीय  निलेश जी अच्छी ग़ज़ल हुई है, सादर बधाई इस ग़ज़ल के लिए।  

  • Chetan Prakash

    आदरणीय, 'नूर साहब, ग़ज़ल लेखन पर आपके सिद्धहस्त होने से मैंने कब इन्कार किया। परम्परागत ग़ज़ल के स्वरूप को आदरणीय आप भी स्वीकार करते हैं, यह आपकी दलील भी कह रही है। कुछ शायर उदाहरण के लिए मोहतरम जनाब, हसरत मोहानी, और हसन कमाल साहब बड़े शायर हैं, सो मुझे आपके जवाब से कोई आपत्ति नहीं है। परन्तु " धुआ" मुझे स्वीकार नहीं हैं, आदरणीय ! आप चाहें तो आदरणीय, भा ई सौरभ साहब से पूछताछ कर सकते हैं, बंधुवर !
  • Nilesh Shevgaonkar

    आ. चेतन प्रकाश जी,
    आपको धुआ स्वीकार नहीं हैं तो यह आपका मसअला है. मैंने धुआँ क़ाफ़िया  प्रयोग में लाया है जिस पर कोई दलील देने की जगह आप मुझे आ. सौरभ सर से पूछताछ करने की सलाह दे रहे हैं जो आश्चर्यजनक और क्षोभ कारक है.
    आपके लिए कुछ उदाहरण पेश हैं.   
    मुझे न देखो मिरे जिस्म का धुआँ देखो
    जला है कैसे ये आबाद सा मकाँ देखो.. इब्राहीम अश्क 
    .
    इस बुलंदी पे कहाँ थे पहले
    अब जो बादल हैं धुआँ थे पहले. अज़हर इनायती 
    .

    तू अपने फूल से होंटों को राएगाँ मत कर
    अगर वफ़ा का इरादा नहीं तो हाँ मत कर
    .

    तू मेरी शाम की पलकों से रौशनी मत छीन
    जहाँ चराग़ जलाए वहाँ धुआँ मत कर.  क़ैसर-उल जाफ़री
    जब आपने मुझे सौरभ सर से पूछताछ की सलाह दे ही दी है तो मेरी भी एक सलाह को आप अम्ली जामा पहनाएं.. ज़रा रेख्ता अथवा कविताकोश पर जा कर ग़ज़लों का अध्ययन करें. इससे आपको पढने -समझने में आसानी होगी और मुझ जैसे रचनाकर्मियों का समय बचेगा. 
    सादर 

  • Nilesh Shevgaonkar

    धन्यवाद आ. शिज्जू भाई 


  • सदस्य टीम प्रबंधन

    Saurabh Pandey

    आदरणीय नीलेश भाई, 

    आपकी इस प्रस्तुति के लिए हार्दिक धन्यवाद और कामयाब अश'आर पर बधाइयाँ

    विशेषकर निम्नलिखित दो शेरों ने तो निरुत्तर कर दिया है - 

    सवाली पूछ रहा था कहाँ कहाँ है तू
    जवाब आया उधर से कहाँ नहीं हूँ मैं? ... इस शेर पर बार-बार बधाइयाँ
    .
    परे हूँ जिस्म से अपने मैं ‘नूर’ हूँ शायद
    बदन के जलने से उठता धुआँ नहीं हूँ मैं... क्या कमाल का कहन हुआ है! वाह-वाह ! 
    मैं वस्तुत: जिन परिस्थितियों में अपने गाँव पर हूँ, इस परिप्रेक्ष्य में इस शेर ने दिल की गहराइयों में हिलोड़ मचा दिया है। 

    हर उम्दा शेर कई परतों में होता है। सुनने वाला अपनी समझ से  उसके परतों को उभारता है। जितनी परतें उतना ही कामयाब वह शेर। 

    हार्दिक बधाइयाँ