भादों की बारिश

भादों की बारिश
(लघु कविता)
***************

लाँघ कर पर्वतमालाएं
पार कर
सागर की सर्पीली लहरें
मैदानों में दौड़ लगा
थकी हुई-सी
धीरे-धीरे कदम बढ़ाती
आ जाती है
बिना आहट किए
यह बूढ़ी
भादों की बारिश।

मौलिक एवं अप्रकाशित 

  • Chetan Prakash

    • यह लघु कविता नहींहै। हाँ, क्षणिका हो सकती थी, जो नहीं हो पाई !

  • सदस्य टीम प्रबंधन

    Saurabh Pandey

    आदरणीय सुरेश कल्याण जी, आपकी लघुकविता का मामला समझ में नहीं आ रहा. आपकी पिछ्ली रचना पर भी मैंने अपने विचार रखे थे. और फिर, भावनाओं को शाब्दिक करने में देखिएगा, शब्द अपने विशेषणॊं के बोझ से न दब जाएँ  भादों की बारिश बूढ़ी हो तो गयी तो कैसे? यदि उसका होना सनातन है, बना हुआ है, तो सारी प्रकृति ही बूढ़ी हुई न ? झबकि प्रकृति नित नवीनता का वरण करती है.

    बहरहाल, आपके सारस्वत प्रयास के लिए शुभकामनाएँ. 

    शुभातिशुभ