आदरणीय सुरेश कल्याण जी, आपकी लघुकविता का मामला समझ में नहीं आ रहा. आपकी पिछ्ली रचना पर भी मैंने अपने विचार रखे थे. और फिर, भावनाओं को शाब्दिक करने में देखिएगा, शब्द अपने विशेषणॊं के बोझ से न दब जाएँ भादों की बारिश बूढ़ी हो तो गयी तो कैसे? यदि उसका होना सनातन है, बना हुआ है, तो सारी प्रकृति ही बूढ़ी हुई न ? झबकि प्रकृति नित नवीनता का वरण करती है.
Chetan Prakash
Aug 26
सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey
आदरणीय सुरेश कल्याण जी, आपकी लघुकविता का मामला समझ में नहीं आ रहा. आपकी पिछ्ली रचना पर भी मैंने अपने विचार रखे थे. और फिर, भावनाओं को शाब्दिक करने में देखिएगा, शब्द अपने विशेषणॊं के बोझ से न दब जाएँ भादों की बारिश बूढ़ी हो तो गयी तो कैसे? यदि उसका होना सनातन है, बना हुआ है, तो सारी प्रकृति ही बूढ़ी हुई न ? झबकि प्रकृति नित नवीनता का वरण करती है.
बहरहाल, आपके सारस्वत प्रयास के लिए शुभकामनाएँ.
शुभातिशुभ
Aug 30