चली आयी है मिलने फिर किधर से
१२२२ १२२२ १२२
जो बच्चे दूर हैं माँ –बाप – घर से
वो पत्ते गिर चुके समझो, शज़र से
शिखर पर जो मिला तनहा मिला है
मरासिम हो अहम, तो बच शिखर से
रसोई में मिला वो स्वाद आख़िर
गुमा था जो किचन में उम्र भर से
तू बाहर बन सँवर के आये जितना
मैं भीतर झाँक सकता हूँ , नज़र से
छिपी है ज़िंदगी में मौत हरदम
वो छू लेगी अगर भागेगा डर से
खुशी बेनाम है, ज़िद्दी है, बस वो
चली आयी है मिलने फिर किधर से
लिये कश्कोल अब वो घूमता है
गदा खाली न भेजा जिसने दर से
तू चाहे चल, घिसट या दौड़ता रह
नहीं मुमकिन अलग होना सफ़र से
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औलिक एवं अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। बहुत खूबसूरत गजल हुई है। हार्दिक बधाई।
Aug 23
Sushil Sarna
Aug 23
Chetan Prakash
खूबसूरत ग़ज़ल हुई आदरणीय गिरिराज भंडारी जी ।
"छिपी है ज़िन्दगी मैं मौत हरदम
वो छू लेगी अगर ( जो तू ) भागेगा डर के
सुझाया हुआ विकल्प कदाचित बेहतर होता
क्योंकि पूरा शे'र बिना कर्ता रह जाएगा !
सादर!
Aug 24
सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी
आदरणीय लक्ष्मण भाई , उत्साह वर्धन के लिए आपका हार्दिक आभार
Aug 25
सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी
आदरणीय सुशील भाई गज़ल की सराहना कर उत्साह वर्धन करने के लिए आपका आभार
Aug 25