दोहा सप्तक. . . नजर

नजरें मंडी हो गईं, नजर हुई  लाचार ।
नजरों में ही बिक गया, एक जिस्म सौ बार ।।

 

नजरों से छुपता नहीं,कभी नजर का प्यार ।
उठी नजर इंकार तो, झुकी नजर  इकरार ।।

 

नजरें समझें जो हुए, नजरों से संवाद ।
बिन बोले ही बोलते , नजरों के उन्माद ।।

 

नजरों को झूठी लगे, नजरों की मनुहार ।
कामुकता से है भरा, नजरों का संसार ।

 

नजरें ही करने लगी, नजरों से व्यापार ।
नजर पाश में हो गई, नजर बड़ी लाचार  ।।

 

नजरों में सिमटा रहा, नजरों का  इसरार ।
अन्तस के उन्माद को, नजर करे साकार ।।

 

नजर समर्पण से हुआ, नजरों को अहसास ।
नजर मिटाती दूरियाँ, नजर बढ़ाती प्यास ।।

 

सुशील सरना / 31-8-25

मौलिक एवं अप्रकाशित 

  • Chetan Prakash

    अच्छा दोहा  सप्तक रचा, आपने, सुशील सरना जी! लेकिन  पहले दोहे का पहला सम चरण संशोधन का आकांक्षी है,  "बाजार को, आप, ' लाचार' से बदल सकते हैं।

  • Sushil Sarna

    आदरणीय चेतन प्रकाश जी सृजन के भावों को आत्मीय मान से अलंकृत करने का दिल से आभार आदरणीय । बहुत सुन्दर सुझाव ।सहमत एवं संशोधित सर 

  • लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

    आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। अच्छे दोहे हुए हैं। हार्दिक बधाई।