ग़ज़ल--( माँ) बैजनाथ शर्मा 'मिंटू'

अरकान-    212  212   212  212

 

दर्द सीने में अक्सर छुपाती है माँ|

तब कहीं जाकर फिर मुस्कुराती है माँ|

 

ख़ुद न सोने की चिंता वो करती  मगर,

लोरियां गा के हमको सुलाती है माँ|

 

रूठ जाते हैं हम जो कहीं माँ से तो,

नाज-नखरे हमारे उठाती है माँ|

 

लाख काँटे हों जीवन में उसके मगर,

फूल बच्चों पे अपनी लुटाती है माँ|

 

माँ क्या होती है  पूछो यतीमों से तुम,

रात-दिन उनके सपनों में आती है माँ|

 

माँ के मुंह से न छीनों निवाला कभी,

भूखे रहकर जो तुमको खिलाती है माँ|

 

राम लल्ला समझ अपनी औलाद को,

अपनी बाँहों में झूला झुलाती है माँ|

 

माँ के दिल को न हर्गिज दुखाओ कभी,

रूप भगवान का लेके आती है माँ|

 

 मौलिक व अप्रकाशित 

  • मनोज अहसास

    बहुत खूब ग़ज़ल हुई है आदरणीय शर्मा जी




    दर्द सीने में अक्सर छुपाती है माँ|
    तब कहीं जाकर फिर मुस्कुराती है माँ| इसमें जाकर को जाके कर लीजिये

    माँ क्या होती है पूछो यतीमों से तुम,
    रात-दिन उनके सपनों में आती है माँ| इसमें आपने क्या को एक मात्रिक लिया है
    वैसे तो ठीक है पर गुणी जनों से भी कुछ मश्वरा मिल जाये तो अच्छा है

    बहुत बधाई इस प्रयास के लिये
    सादर
  • Shyam Narain Verma

    सुन्दर भाव पूर्ण रचना के लिये आपको बधाइयाँ ।
  • DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU'

    मनोज साहेब, सही और उचित सलाह के लिए धन्यवाद|  .........गुणी जनों के मशवरे की प्रतीक्षा में..... बैजनाथ शर्मा 'मिंटू'| 

  • DR. BAIJNATH SHARMA'MINTU'

    श्याम वर्मा जी..... धन्यवाद|