चित्र से काव्य तक

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'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 152

आदरणीय काव्य-रसिको !

सादर अभिवादन !!

  

’चित्र से काव्य तक छन्दोत्सव का यह एक सौ बानवाँयोजन है.   

 

इस बार के आयोजन के लिए सहभागियों के अनुरोध पर अभी तक आम हो चले चलन से इतर रचना-कर्म हेतु एक विशेष छंद साझा किया जा रहा है। 

इस बार के दो छंद हैं -  चौपाई छंद / पादाकुलक छंद   

आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ - 

23 दिसम्बर’ 23 दिन शनिवार से

24 दिसम्बर’ 23 दिन रविवार तक

केवल मौलिक एवं अप्रकाशित रचनाएँ ही स्वीकार की जाएँगीं.  

चौपाई / पादाकुलक छंद के मूलभूत नियमों के लिए यहाँ क्लिक करें

जैसा कि विदित है, कई-एक छंद के विधानों की मूलभूत जानकारियाँ इसी पटल के  भारतीय छन्द विधान समूह में मिल सकती हैं.

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आयोजन सम्बन्धी नोट 

फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ - 

आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ - 23 दिसम्बर’ 23 दिन शनिवार से 24 दिसम्बर’ 23 दिन रविवार तक रचनाएँ तथा टिप्पणियाँ प्रस्तुत की जा सकती हैं। 

अति आवश्यक सूचना :

  1. रचना केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, अन्य सदस्य की रचना किसी और सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी.
  2. नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति को बिना कोई कारण बताये तथा बिना कोई पूर्व सूचना दिए हटाया जा सकता है. यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.
  3. सदस्यगण संशोधन हेतु अनुरोध  करें.
  4. अपने पोस्ट या अपनी टिप्पणी को सदस्य स्वयं ही किसी हालत में डिलिट न करें. 
  5. आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है. लेकिन बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पायें इसके प्रति संवेदनशीलता आपेक्षित है.
  6. इस तथ्य पर ध्यान रहे कि स्माइली आदि का असंयमित अथवा अव्यावहारिक प्रयोग तथा बिना अर्थ के पोस्ट आयोजन के स्तर को हल्का करते हैं.
  7. रचनाओं पर टिप्पणियाँ यथासंभव देवनागरी फाण्ट में ही करें. 
  8. अनावश्यक रूप से रोमन फाण्ट का उपयोग  करें. रोमन फ़ॉण्ट में टिप्पणियाँ करना एक ऐसा रास्ता है जो अन्य कोई उपाय न रहने पर ही अपनाया जाय.
  9. रचनाओं को लेफ़्ट अलाइंड रखते हुए नॉन-बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें. अन्यथा आगे संकलन के क्रम में संग्रहकर्ता को बहुत ही दिक्कतों का सामना करना पड़ता है.

छंदोत्सव के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है ...


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मंच संचालक
सौरभ पाण्डेय
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम  

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    लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

    भोर  हुई  या  साँझ ढली है।
    हम संशय  में  बात  सही है।।
    लेकिन डटकर यह कहना है।
    दृश्य गाँव  का  तय इतना है।।
    *
    धुँधली धुँधली सभी दिशाएँ।
    मौन  पड़ी  हैं  सभी  हवाएँ।।
    दूर नगर से गाँव खड़ा है।
    संदूषण का कोप बढ़ा है।।
    *
    फसल कटी तो जली पराली।
    बढ़ी  शीत  में  धुंध   निराली।।
    रक्तिम बदली सूरज पीला।
    धरती सूखी   मन है गीला।।
    *
    उद्योगों  के   पाँव   पड़े हैं।
    चिमनीं लगतीं पेड़ खड़े हैं।।
    धुआँ उगलते दिनभर ये भी।
    रोजी दें पर  विषभर  ये भी।।
    *
    सुना  गाँव  में  भारत बसता।
    दृश्य देख पर मन यह कहता।।
    लिए टोकरी किधर चले हो।
    तुम भी क्या बस गये छले हो।।
    **
    मौलिक/अप्रकाशित

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      Chetan Prakash

      चौपाई ः छंद

      गाँव ..हाट ..माल नहीं बिकता ।
      बिकता तो अनाज ही मिलता ।।
      शहर ..हाट सामान.. बिका है ।
      मिला अगर धन काम चला है ।।

      मर्द-बीर ये बड़े.. सयाने ।
      एक द्वैत हैं एक निशाने ।।
      साथ - साथ ..चलते हैं दोनों ।
      माल दिखाते सभी दुकानों ।।

      हुई प्रात ..तब.. मंडी आये ।
      माल समेट शहर ले आये ।।
      कृषक साग-सब्जी फल बेचे ।
      लौटे घर.. खुश.. होते बच्चे ।।

      खेल- खिलौने सखा सुहाने ।
      लेकिन पैसे.. लगे ठिकाने ।।
      कपड़े ..लत्तों ..शीत बितानी ।
      तब होती है शिशिर सुखानी ।।

      अभी ड्रेस बच्चों सिलवानी ।
      गरम कोट पतलून मँगानी ।।
      खर्च बहुत.. हो जाता इन में ।
      फिर भी सर्दी लगती वन में ।।

      मौलिक व अप्रकाशित

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        Ashok Kumar Raktale

          

        चौपाई छंद

        *

        साँझ हुई अब दिन ढलना है। तेज कदम घर को चलना है।।

        रात    लगायेगी   अब  डेरा। होगा    राही    शीघ्र   अँधेरा।।

        *

        शीत  बढ़ेगी  तन  ठिठुरेगा। पग-पग  पर ज्यों शूल चुभेगा।।

        सर्द   हवाएँ   घाव    करेंगी। चैन   न   पलभर   लेने   देंगी।।

        *

        भूल सकल  पथ  की दुश्वारी। शीश  उठा  चल गठरी भारी।।

        शीघ्र  पहुँचना है  हमको घर। आगे  की  फिर   जाने  ईश्वर।।

        *

        पथ  पर इक  जो नारी मन है। उसमें उलझन ही उलझन है।।

        बात हुई यह  अब अक्सर  की। चिन्ताएँ उसको सब घर की।।

        *

        काम   उसे   करने   हैं   नाना। प्रथम  बनाना  जाकर  खाना।।

        सोना खाकर  अन्तिम दाना। कुछ पल सोकर फिर उठ जाना।।

        #

        ~ मौलिक /अप्रकाशित.

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