• कुर्सी जिसे भी सौंप दो बदलेगा कुछ नहीं-लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

    जोगी सी अब न शेष हैं जोगी की फितरतेंउसमें रमी हैं आज भी कामी की फितरते।१।*कुर्सी जिसे भी सौंप दो बदलेगा कुछ नहींचढ़ती हैं आदमी में जो कुर्सी की फितरतें।२।*कहने लगे हैं चाँद को,  सूरज को पढ़ रहेसमझे नहीं हैं लोग जो धरती की फितरतें।३।*किस हाल में सवार हैं अब कौन क्या कहेभयभीत नाव देख के  माझी  की…

    By लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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  • दोहा पंचक. . . . .दीपावली

    दोहा पंचक. . . . . . दीपावलीदीप जले हर द्वार पर, जग में हो उजियार  । आपस के सद्भाव से, रोशन हो संसार ।।एक दीप इस द्वार पर,एक पास के द्वार । आपस के यह प्रेम ही, हरता हर अँधियार ।।जले दीप से दीप तो, प्रेम बढ़े हर द्वार  । भेद भाव सब दूर हों , खुशियाँ मिलें अपार ।।माँ लक्ष्मी का कीजिए, पूजन संग गणेश ।…

    By Sushil Sarna

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  • साथ करवाचौथ का त्यौहार करके-लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

    २१२२/२१२२/२१२२ **** खुश हुआ अंबर धरा से प्यार करके साथ करवाचौथ का त्यौहार करके।१। * चूड़ियाँ खनकें  हिना का रंग हँसता स्वप्न सजनी के सभी गुलज़ार करके।२। * चाँद का पथ तक रहीं बेचैन आँखें, लौट आओ कह स्वयं उपहार करके।३। * रूठना पलभर मनाना उम्रभर को प्यार में सजनी ने यूँ इकरार करके।४। * मान…

    By लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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  • देश की बदक़िस्मती थी चार व्यापारी मिले (ग़ज़ल)

    बह्र : 2122 2122 2122 212 देश की बदक़िस्मती थी चार व्यापारी मिलेझूठ, नफ़रत, छल-कपट से जैसे गद्दारी मिलेसंत सारे बक रहे वाही-तबाही लंठ बन धर्म सम्मेलन में अब दंगों की तैयारी मिलेरोशनी बाँटी जिन्होंने जिस्म उनका जल गयाऔर अँधेरा बेचने वालों को सरदारी मिलेकौन सी चौखट पे जाएँ सच बताने जब हमेंनिर्वसन राजा…

    By धर्मेन्द्र कुमार सिंह

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  • "मुसाफ़िर" हूँ मैं तो ठहर जाऊँ कैसे - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

    १२२/१२२/१२२/१२२*****पसरने न दो इस खड़ी बेबसी कोसहज मार देगी हँसी जिन्दगी को।।*नया दौर जिसमें नया ही चलन हैअँधेरा रिझाता है अब रोशनी को।।*दुखों ने लगायी  है  ये आग कैसीसुहाती नहीं है खुशी ही खुशी को।।*चकाचौंध ऊँची जो बोली लगाताकि अनमोल कैसे रखें सादगी को।।*बचे ज़िन्दगी क्या भला हौसलों कीअगर तोड़  दे …

    By लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

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  • सदस्य कार्यकारिणी

    ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर

    1222-1222-1222-1222जो आई शब, जरा सी देर को ही क्या गया सूरज।अंधेरे भी मुनादी कर रहें घबरा गया सूरज।चमकते चांद को इस तीरगी में देख लगता है,विरासत को बचाने का हुनर समझा गया सूरज।उफ़क तक दौड़ने के बाद में तब चैन से सोया,जमीं से भी जो जाते वक्त में मिलता गया सूरज।तुम्हें रोना है जितनी देर, रो लो शाम का…

    By मिथिलेश वामनकर

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  • दोहा पंचक. . . . .इसरार

    दोहा पंचक. . . .  इसरारलब से लब का फासला, दिल को नहीं कबूल ।उल्फत में चलते नहीं, अश्कों भरे उसूल ।।रुखसारों पर रह गए, कुछ ऐसे अल्फाज ।तारीकी के खुल गए, वस्ल भरे सब राज ।।जुल्फों की चिलमन हटी ,हया हुई मजबूर ।तारीकी में लम्स का, बढ़ता रहा सुरूर ।।ख्वाब हकीकत से लगे, बहका दिल नादान ।बढ़ी करीबी इस कदर,…

    By Sushil Sarna

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  • शोक-संदेश (कविता)

    अथाह दुःख और गहरी वेदना के साथ आप सबको यह सूचित करना पड़ रहा है कि आज हमारे बीच वह नहीं रहे जिन्हें युगों से ईश्वर, ख़ुदा, भगवान, परमात्मा इत्यादि कहकर पुकारा जाता था।उनकी कोई देह न थी, पर उनकी अनुपस्थिति की धूल हर आँगन, हर मंदिर, हर मस्जिद, हर गिरजाघर में बेआवाज बिखर चुकी हैउनकी मृत्यु पर न…

    By धर्मेन्द्र कुमार सिंह

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  • सदस्य कार्यकारिणी

    ग़ज़ल - ( औपचारिकता न खा जाये सरलता ) गिरिराज भंडारी

    २१२२       २१२२        २१२२   औपचारिकता न खा जाये सरलता********************************ये अँधेरा, फैलता  जो  जा रहा हैरोशनी का अर्थ भी समझा रहा है चढ़ चुका है इक शिकारी घोसले तकक्या परिंदों को समझ कुछ आ रहा है  जो दिया की बोर्ड से आदेश तुमने  मानिटर से फल तुम्हें मिलता रहा है पूंछ खींची आपने बकरा…

    By गिरिराज भंडारी

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  • दोहा दशम्. . . . . गुरु

    दोहा दशम्. . . . गुरुशिक्षक शिल्पी आज को, देता नव आकार । नव युग के हर स्वप्न को, करता वह साकार ।।बिना स्वार्थ के बाँटता, शिक्षक अपना ज्ञान । गढ़े ज्ञान से वह सदा, एक सभ्य  इंसान ।।गुरुवर  अपने  ज्ञान से , करते अमर प्रकाश । राह दिखाते सत्य की, करते तम का नाश ।।शिक्षक करता ज्ञान से , शिष्यों का…

    By Sushil Sarna

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