मुझे बताया गया कि ग़ज़ल पर विशद् ज्ञान रखने वाले उस्तादों से पूछ लिया गया है और वे इस कार्य के लिये समय देने की स्थिति में नहीं हैं और एक विकल्प के रूप में मुझे यह प्रयास करना है कि जो कुछ मुझ ज्ञात है ग़ज़ल विधा पर वह साझा कर सकूँ।
मैं स्वयं को इस योग्य नहीं मानता कि इस विषय पर कक्षायें ले सकूँ, लेकिन ज्ञात परिस्थितियों में प्रयास से पीछे भी नहीं हट सकता। अगर मैं वास्तव में कक्षायें ले सकता तो अब तक अपने ब्लॉग पर ही आरंभ कर चुका होता।
ग़ज़ल कहना सीखा जा सकता है इसपर मतभेद है। मैं इस मतभेद से सहमत हूँ फिर भी मानता हूँ कि ग़ज़ल का आधार ज्ञान भी व्यवस्थित रूप से प्राप्त हो जाये तो ग़ज़ल कहने की संभावना बढ़ जाती है। इसी सोच को ध्यान में रखकर मुझे जो ज्ञात है वह प्रस्तुत करने का प्रयास अवश्य करूँगा। बावजू़द इसके कि ग़ज़ल कहना सीखना हो तो इंटरनैट पर बहुत जानकारी उपलब्ध है, व्यवस्थित भी और अव्यवस्थित भी। अब वो वक्त नहीं रहा कि ज्ञान प्राप्त करना हो तो तक्षशिला जाना पड़े, इंटरनैट के माध्यम से तक्षशिला ही इच्छुक तक पहुँच जाती है।
मैं स्वयं ग़ज़ल का विद्यार्थी हूँ इसलिये मुझसे तक्षशिला स्तर की अपेक्षा तो ठीक नहीं रहेगी, हॉं इतना अवश्य है कि जो कुछ प्रस्तुत करने का प्रयास करूँगा उससे ग़ज़ल कहने के इच्छुक भले ही कुछ न सीख सकें, वे अवश्य सीख सकेंगे जो प्रतिबद्ध होंगे। प्रयास यह रहेगा कि अब तक मुझे जो प्राप्त हुआ है वह सामान्य हो सके।
बहुत से ऐसे शायर ऐसे हुए हैं जिनके नाम गुम हैं कलाम जिन्दा। और यह कलाम कहने की क्षमता ही होती है जो मूलत: नैसर्गिक होती है, जिसे ऑंशिक रूप से मॉंजा तो जा सकता है लेकिन व्यक्ति में मूल तत्व ही न हो तो पैदा नहीं किया जा सकता। इसलिये अच्छी ग़ज़ल कहने के लिये अपने अंदर भाव पक्ष और सोच को तलाशना जरूरी होगा और फिर जरूरी होगा शब्द समर्थ होना।
पाठ तो सीमित रहेंगे विधान और विस्तृत चर्चा तक। चर्चा और गृह-कार्य में सक्रियता उनके लिये अवश्य सहायक होगी जो अभी इस विधा से परिचित नहीं हैं।
"यह कलाम कहने की क्षमता ही होती है जो मूलत: नैसर्गिक होती है, जिसे ऑंशिक रूप से मॉंजा तो जा सकता है लेकिन व्यक्ति में मूल तत्व ही न हो तो पैदा नहीं किया जा सकता"
बिलकुल सही बात कही आपने तिलक जी. कई साल पहले जब मैं शाष्त्रीय संगीत कि शिक्षा ले रहा था तो मेरे गुरूजी कहा करते थे की संगीत तो तुम्हारे अंदर होता है जिसे मैं बाहर निकलने/निखारने की कोशिश कर रहा हूँ. यही बात गज़ल पर भी लागू होती है.
कृपया आरम्भ से बताएँगे ये उम्मीद करता हूँ, यहाँ देखा लोग २२२ २२३३ आदि लिखते है कृपया लिखी पंक्ति को रुक्न ,बहर में बांटने और गिनने का तरीका भी बताएं | अब लोग आ ई ऊ जैसी मात्राओं को काफिया बनाते हैं जिससे कुछ अटकाव और अधूरापन लग्ता है अतः मैं ऐसे प्रयोग नहीं कर पाता मुझे लगता है की पूरा अक्षर तो काफिया लेना ही चाहिये | कृपया मार्गदर्शन करें |आभारी रहूँगा |
Tilak Raj Kapoor
मुझे बताया गया कि ग़ज़ल पर विशद् ज्ञान रखने वाले उस्तादों से पूछ लिया गया है और वे इस कार्य के लिये समय देने की स्थिति में नहीं हैं और एक विकल्प के रूप में मुझे यह प्रयास करना है कि जो कुछ मुझ ज्ञात है ग़ज़ल विधा पर वह साझा कर सकूँ।
मैं स्वयं को इस योग्य नहीं मानता कि इस विषय पर कक्षायें ले सकूँ, लेकिन ज्ञात परिस्थितियों में प्रयास से पीछे भी नहीं हट सकता। अगर मैं वास्तव में कक्षायें ले सकता तो अब तक अपने ब्लॉग पर ही आरंभ कर चुका होता।
ग़ज़ल कहना सीखा जा सकता है इसपर मतभेद है। मैं इस मतभेद से सहमत हूँ फिर भी मानता हूँ कि ग़ज़ल का आधार ज्ञान भी व्यवस्थित रूप से प्राप्त हो जाये तो ग़ज़ल कहने की संभावना बढ़ जाती है। इसी सोच को ध्यान में रखकर मुझे जो ज्ञात है वह प्रस्तुत करने का प्रयास अवश्य करूँगा। बावजू़द इसके कि ग़ज़ल कहना सीखना हो तो इंटरनैट पर बहुत जानकारी उपलब्ध है, व्यवस्थित भी और अव्यवस्थित भी। अब वो वक्त नहीं रहा कि ज्ञान प्राप्त करना हो तो तक्षशिला जाना पड़े, इंटरनैट के माध्यम से तक्षशिला ही इच्छुक तक पहुँच जाती है।
मैं स्वयं ग़ज़ल का विद्यार्थी हूँ इसलिये मुझसे तक्षशिला स्तर की अपेक्षा तो ठीक नहीं रहेगी, हॉं इतना अवश्य है कि जो कुछ प्रस्तुत करने का प्रयास करूँगा उससे ग़ज़ल कहने के इच्छुक भले ही कुछ न सीख सकें, वे अवश्य सीख सकेंगे जो प्रतिबद्ध होंगे। प्रयास यह रहेगा कि अब तक मुझे जो प्राप्त हुआ है वह सामान्य हो सके।
बहुत से ऐसे शायर ऐसे हुए हैं जिनके नाम गुम हैं कलाम जिन्दा। और यह कलाम कहने की क्षमता ही होती है जो मूलत: नैसर्गिक होती है, जिसे ऑंशिक रूप से मॉंजा तो जा सकता है लेकिन व्यक्ति में मूल तत्व ही न हो तो पैदा नहीं किया जा सकता। इसलिये अच्छी ग़ज़ल कहने के लिये अपने अंदर भाव पक्ष और सोच को तलाशना जरूरी होगा और फिर जरूरी होगा शब्द समर्थ होना।
पाठ तो सीमित रहेंगे विधान और विस्तृत चर्चा तक। चर्चा और गृह-कार्य में सक्रियता उनके लिये अवश्य सहायक होगी जो अभी इस विधा से परिचित नहीं हैं।
Feb 26, 2011
Rajeev Bharol
"यह कलाम कहने की क्षमता ही होती है जो मूलत: नैसर्गिक होती है, जिसे ऑंशिक रूप से मॉंजा तो जा सकता है लेकिन व्यक्ति में मूल तत्व ही न हो तो पैदा नहीं किया जा सकता"
बिलकुल सही बात कही आपने तिलक जी. कई साल पहले जब मैं शाष्त्रीय संगीत कि शिक्षा ले रहा था तो मेरे गुरूजी कहा करते थे की संगीत तो तुम्हारे अंदर होता है जिसे मैं बाहर निकलने/निखारने की कोशिश कर रहा हूँ. यही बात गज़ल पर भी लागू होती है.
Feb 26, 2011
Abhinav Arun
Feb 27, 2011
Abhinav Arun
Feb 27, 2011