इस समूह मे ग़ज़ल की कक्षा आदरणीय श्री तिलक राज कपूर द्वारा आयोजित की जाएगी, जो सदस्य सीखने के इच्छुक है वो यह ग्रुप ज्वाइन कर लें |
धन्यवाद |
यह आलेख उनके लिये विशेष रूप से सहायक होगा जिनका ग़ज़ल से परिचय सिर्फ पढ़ने सुनने तक ही रहा है, इसकी विधा से नहीं। इस आधार आलेख में जो शब्द आपको नये लगें उनके लिये आप ई-मेल अथवा टिप्पणी के माध्यम से पृथक से प्रश्न कर सकते हैं लेकिन उचित होगा कि उसके पहले पूरा आलेख पढ़ लें; अधिकाँश उत्तर यहीं मिल जायेंगे।
एक अच्छी परिपूर्ण ग़ज़ल कहने के लिये ग़ज़ल की कुछ आधार बातें समझना जरूरी है। जो संक्षिप्त में निम्नानुसार हैं:
ग़ज़ल- एक पूर्ण ग़ज़ल में मत्ला, मक्ता और 5 से 11 शेर (बहुवचन अशआर) प्रचलन में ही हैं। यहॉं यह भी समझ लेना जरूरी है कि यदि किसी ग़ज़ल में सभी शेर एक ही विषय की निरंतरता रखते हों तो एक विशेष प्रकार की ग़ज़ल बनती है जिसे मुसल्सल ग़ज़ल कहते हैं हालॉंकि प्रचलन गैर-मुसल्सल ग़ज़ल का ही अधिक है जिसमें हर शेर स्वतंत्र विषय पर होता है। ग़ज़ल का एक वर्गीकरण और होता है मुरद्दफ़ या गैर मुरद्दफ़। जिस ग़ज़ल में रदीफ़ हो उसे मुरद्दफ़ ग़ज़ल कहते हैं अन्यथा गैर मुरद्दफ़।
बह्र- ग़ज़ल किसी न किसी बह्र पर आधारित होती है और किसी भी ग़ज़ल के सभी शेर उस बह्र का पालन करते हैं। बह्र वस्तुत: एक लघु एवं दीर्घ मात्रिक-क्रम निर्धारित करती है जिसका पालन न करने पर शेर बह्र से बाहर (खारिज) माना जाता है। यह मात्रिक-क्रम भी मूलत: एक या अधिक रुक्न (बहुवचन अर्कान) के क्रम से बनता है।
रुक्न- रुक्न स्वयं में दीर्घ एवं लघु मात्रिक का एक निर्धारित क्रम होता है, और ग़ज़ल के संदर्भ में यह सबसे छोटी इकाई होती है जिसका पालन अनिवार्य होता है। एक बार माहिर हो जाने पर यद्यपि रुक्न से आगे जुज़ स्तर तक का ज्ञान सहायक होता है लेकिन ग़ज़ल कहने के प्रारंभिक ज्ञान के लिये रुक्न तक की जानकारी पर्याप्त रहती है। फ़ारसी व्याकरण अनुसार रुक्न का बहुवचन अरकान है। सरलता के लिये रुक्नों (अरकान) को नाम दिये गये हैं। ये नाम इस तरह दिये गये हैं कि उन्हें उच्चारित करने से एक निर्धारित मात्रिक-क्रम ध्वनित होता है। अगर आपने किसी बह्र में आने वाले रुक्न के नाम निर्धारित मात्रिक-क्रम में गुनगुना लिये तो समझ लें कि उस बह्र में ग़ज़ल कहने का आधार काम आसान हो गया।
रदीफ़-आरंभिक ज्ञान के लिये यह जानना काफ़ी होगा कि रदीफ़ वह शब्दॉंश, शब्द या शब्द-समूह होता है जो मुरद्दफ़ ग़ज़ल के मत्ले के शेर की दोनों पंक्तियों में काफि़या के बाद का अंश होता है। रदीफ़ की कुछ बारीकियॉं ऐसी हैं जो प्रारंभिक ज्ञान के लिये आवश्यक नहीं हैं, उनपर बाद में उचित अवसर आने पर चर्चा करेंगे।
गैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल में रदीफ़ नहीं होता है।
काफि़या-आरंभिक ज्ञान के लिये यह जानना काफ़ी होगा कि काफिया वह तुक है जिसका पालन संपूर्ण ग़ज़ल में करना होता है यह स्वर, व्यंजन अथवा स्वर और व्यंजन का संयुक्त रूप भी हो सकता है।
शेर- शेर दो पंक्तियों का मात्रिक-क्रम छंद होता है जो स्वयंपूर्ण पद्य-काव्य होता है अर्थात् हर शेर स्वतंत्र रूप से पूरी बात कहता है। शेर की प्रत्येक पंक्ति को ‘मिसरा’ कहा जाता है। शेर की पहली पंक्ति को मिसरा-ए-उला कहते हैं और दूसरी पंक्ति को मिसरा-ए-सानी कहते हैं। शेर के दोनों मिसरे निर्धारित मात्रिक-क्रम की दृष्टि से एक से होते हैं। जैसा कि उपर कहा गया शेर के मिसरे का मात्रिक-क्रम किसी न किसी ‘बह्र’ से निर्धारित होता है।
यहॉं एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि क्या कोई भी दो पंक्तियों का मात्रिक-क्रम-छंद शेर कहा जा सकता है? इसका उत्तर है ‘जी नहीं’। केवल मान्य बह्र पर आधारित दो पंक्ति का छंद ही शेर के रूप में मान्य होता है। यहॉं यह स्पष्ट रूप से समझ लेना जरूरी है कि किसी भी ग़ज़ल में सम्मिलित सभी शेर मत्ला (ग़ज़ल का पहला शेर जिसे मत्ले का शेर भी कहते हैं) से निर्धारित बह्र, काफिया व रदीफ का पालन करते हैं और स्वयंपूर्ण पद्य-काव्य होते हैं।
यहॉं एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि जब हर शेर एक स्वतंत्र पद्य-काव्य होता है तो क्या शेर स्वतंत्र रूप से बिना ग़ज़ल के कहा जा सकता है। इसका उत्त्तर ‘हॉं’ है; और नये सीखने वालों के लिये यही ठीक भी रहता है कि वो शुरुआत इसी प्रकार इक्का-दुक्का शेर से करें। इसका लाभ यह होता है कि ग़ज़ल की और जटिलताओं में पड़े बिना शेर कहना आ जाता है। स्वतंत्र शेर कहने में एक लाभ यह भी होता है कि मत्ले का शेर कहने की बाध्यता नहीं रहती है।
मत्ले का शेर या मत्ला- ग़ज़ल का पहला शेर मत्ले का शेर यह मत्ला कहलाता है जिसकी दोनों पंक्तियॉं समतुकान्त (हमकाफिया) होती हैं और वह तुक (काफिया) निर्धारित करती हैं जिसपर ग़ज़ल के बाकी शेर लिखे जाते हैं)। मत्ले के शेर में दोनों पंक्तियों में काफिया ओर रदीफ़ आते हैं।
मत्ले के शेर से ही यह निर्धारित होता है कि किस मात्रिक-क्रम (बह्र) का पूरी ग़ज़ल में पालन किया जायेगा।
मत्ले के शेर से ही रदीफ़ भी निर्धारित होता है।
ग़ज़ल में कम से कम एक मत्ला होना अनिवार्य है।
हुस्ने मतला और मत्ला-ए-सानी- किसी ग़ज़ल में आरंभिक मत्ला आने के बाद यदि और कोई मत्ला आये तो उसे हुस्न-ए-मत्ला कहते हैं। एक से अधिक मत्ला आने पर बाद में वाला मत्ला यदि पिछले मत्ले की बात को पुष्ट अथवा और स्पष्ट करता हो तो वह मत्ला-ए-सानी कहलाता है।
मक्ता और आखिरी शेर- ग़ज़ल के आखिरी शेर में यदि शायर का नाम अथवा उपनाम आये तो उसे मक्ते का शेर या मक्ता, अन्यथा आखिरी शेर कहते हैं।
तक्तीअ- ग़ज़ल के शेर को जॉंचने के लिये तक्तीअ की जाती है जिसमें शेर की प्रत्येक पंक्ति के अक्षरों को बह्र के मात्रिक-क्रम के साथ रखकर देखा जाता है कि पंक्ति मात्रिक-क्रमानुसार शुद्ध है। इसीसे यह भी तय होता है कि कहीं दीर्घ को गिराकर हृस्व के रूप में या हृस्व को उठाकर दीर्घ के रूप में पढ़ने की आवश्यकता है अथवा नहीं। विवादास्पद स्थितियों से बचने के लिये अच्छा रहता ग़ज़ल को सार्वजनिक करने के पहले तक्तीअ अवश्य कर ली जाये।
रोहित डोबरियाल "मल्हार"
आदरणीय
तिलक जी कृपया आप मेरी इस रचना के माध्यम से कुछ समझा सकते हैं की यह किस प्रकार की ग़ज़ल है
ये क्यूँ और कैसे हो गया
हद में रहकर भी बेहद हो गया
था कभी जो नज़रों और ख्वाबों में,
ना जाने अब क्यूँ ओझल हो गया
Sep 26, 2017
विनोद 'निर्भय'
वाह,बहुत उपयोगी जानकारी दिया आपने,आदरणीय!
Nov 17, 2018
Asif zaidi
मोहतरम जनाब तिलक राजकपूर जी आदाब शुक्रगुज़ार हूँ, आपकी कक्षा ज्वॉइन करके बहुत आसान तरीक़े से समझाया आपने मालिक आपकी हर परिस्थिति में सहायता करे आमीन सादर
Jan 22, 2019