इस समूह मे ग़ज़ल की कक्षा आदरणीय श्री तिलक राज कपूर द्वारा आयोजित की जाएगी, जो सदस्य सीखने के इच्छुक है वो यह ग्रुप ज्वाइन कर लें |
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ग़ज़ल की आधार परिभाषायें जानने के बाद स्वाभाविक उत्सुकता रहती है इन परिभाषित तत्वों के प्रायोगिक उदाहरण जानने की। ग़ज़ल में बह्र का बहुत अधिक महत्व है लेकिन उत्सुकता सबसे अधिक काफि़या के प्रयोग को जानने की रहती है। आज प्रयास करते हैं काफि़या को उदाहरण सहित समझने की।
सभी उदाहरण मैनें आखर कलश पर प्रकाशित गोविन्द गुलशन जी की ग़ज़लों से लिये हैं।
एक मत्ला देखें:
'दिल में ये एक डर है बराबर बना हुआ
मिट्टी में मिल न जाए कहीं घर बना हुआ'
इसमें 'बना हुआ' तो मत्ले की दोनों पंक्तियों के अंत में आने वाले स्वतंत्र शब्द हैं इसलिये रदीफ़ हुए और हर शेर की दूसरी पंक्ति के अंत में आने आवश्यक हैं। अब रदीफ़ से पीछे की तरफ़ लौटें तो देखते हैं कि बराबर और घर दोनों मूल शब्द हैं और 'र' पर समाप्त हो रहे हैं, ऐसे में यूँ तो आभासित होता है कि 'र' पर समाप्त होने वाले शब्द काफि़या के रूप में प्रयोग किये जा सकते हैं लेकिन काफि़या में ध्वनि का महत्व देखें तो 'बराबर' और 'घर' दोनों के अंत में 'अर' ध्वनित हो रहा है ऐसे में ग़ज़ल के शेष अशआर में काफि़या के केवल ऐसे शब्द आ सकते हैं जिनके अंत में 'अर' ध्वनित हो रहा हो। ग़ज़ल में लिये गये शेष काफि़या पत्थर, मंज़र, पर, समंदर हैं।
यहॉं एक बात समझना जरूरी है वह है सिनाद दोष की जो व्यंजन पर कायम होने वाले काफिया के पूर्व के स्वर के अंतर से उत्पन्न होता है। उदाहरणस्वरूप अगर 'शेर' और 'घर' को मत्ले में काफि़या बनाया जाए तो 'अेर' और 'अर' के स्वराँतर के कारण सिनाद दोष उत्पन्न हो जाएगा। यही स्थिति नुक्ते के कारण भी पैदा होती है। माई नेम इज़ ख़ान में शाहरुख़ ख़ान इस नुक्ते को बार-बार समझाते रहें हैं। 'गान' और 'ख़ान' में 'न' के पूर्व आने वाले 'गा' और 'ख़ा' में स्वरॉंतर है। इसी प्रकार अनुनासिक स्वर का भी ध्यान रखा जाना आवश्यक होता है। 'अंदर', 'कलंदर' और 'बंदर' तो ठीक होंगे लेकिन इनके साथ न तो 'मंदिर' स्वीकार्य होगा और न ही 'गदर'। ऐसा क्यों नहीं हो सकता यह अब आप समझ सकते हैं ऐसा मेरा विश्वास है।
अब एक अन्य मत्ला देखें:
'इधर उधर की न बातों में तुम घुमाओ मुझे
मैं सब समझता हूँ पागल नहीं बनाओ मुझे'
इस मत्ले को देखकर अब आप यह तो सरलता से कह सकते हैं कि 'मुझे' रदीफ़ है लेकिन इस मत्ले में एक विशेष बात है जिसपर ध्यान देना जरूरी है; वह है काफि़या के शब्दों 'घुमाओ' और 'बनाओ' में।
दोनों मूल शब्द नहीं हैं और बढ़ाकर बनाये गये हैं और इसके अनुसार ऐसे शब्द जो बढ़े हुए रूप में 'आओ' देते हैं काफि़या के रूप में प्रयोग में लाये जा सकते हैं। ग़ज़ल में जाओ, बताओ, लाओ और जलाओ काफि़या के रूप में प्रयोग में लाये गये हैं इनके अलावा 'सताओ', 'सजाओ', 'खिलाओ', 'दिखाओ' आदि भी प्रयोग में लाये जा सकते हैं। यहॉं 'खिलाओ', 'दिखाओ' के प्रयोग में आपत्ति क्यों नहीं होगी यह सोचने का प्रश्न है। एक बार फिर प्रयोग में लाये गये काफि़या के शब्दों 'घुमाओ' और 'बनाओ' को देखें तो काफि़या 'ओ' पर स्थापित होकर 'आ' से स्वर साम्य प्राप्त कर रहा है और यही प्रकृति 'खिलाओ', 'दिखाओ' शब्दों में भी है अत: 'खिलाओ', 'दिखाओ' शब्दों में 'खि' और 'दि' तक बात जा ही नहीं रही है। काफि़या के स्वर अथवा व्यंजन से पूर्व के स्वर 'आ' पर काफि़या टिक गया और अब उसे अन्य किसी सहारे की ज़रूरत नहीं रही।
अब अगर इसी मत्ले के शेर में 'घुमाओ' के साथ 'जमाओ' लिया जाता तो क्या स्थिति बनती यह सोचने का विषय है। अनुभवी शायर/ शायरा के लिये तो कठिन न होगा लेकिन इस पर अपने विचार रखते हुए एक चर्चा हो जाये तो समझ में आये कि मेरी बात सही जगह पहुँच भी रही या नहीं।
फिर अगले आलेख में इसी बात को आगे बढ़ाते हैं।
धर्मेन्द्र कुमार सिंह
आदरणीय तिलकराज जी इतनी अच्छी जानकारी इतने सरल तरीके से समझाने के लिए आपका आभार। इससे हम जैसे विद्यार्थियों का निश्चित ही भला होगा। रही बात "घुमाओ" और "जमाओ" की तो यहाँ काफिया "मा" पर आकर टिक गया है यानि इसके बाद वाले शब्दों में "माओ" होना आवश्यक है काफ़िया बनने के लिए। अगर "कमाओ" और "जमाओ" होता तो "अमाओ" हर शब्द में होना आवश्यक होता क्यूँकि काफिया "अ" पर आकर टिकता। राजीव जी की बात ने मुझे भी संदेह में डाल दिया है इसके उत्तर में एक तुक्का मार रहा हूँ।
दुआओं और राहों को दुआ+ओं और राह् + ओं लिखा जा सकता है यहाँ दुआ तो अर्थपूर्ण शब्द है परन्तु "राह्" अर्थपूर्ण शब्द नहीं है "राह" अर्थपूर्ण शब्द है। इसलिए "राह्" का कोई अर्थ ना होने से यह काफिया ईता दोष से मुक्त है। सादर
Mar 19, 2011
Tilak Raj Kapoor
अगला आलेख अभी तैयार नहीं हो पाया है, होली अवकाश का लाभ ले रहा हूँ। तैयार होते ही एक दो दिन में लगाता हूँ।
Mar 21, 2011
विनोद 'निर्भय'
Nov 17, 2018