For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ओबीओ लखनऊ-चैप्टर की साहित्यिक-परिचर्चा माह अक्टूबर 2020- एकप्रतिवेदन      :: डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव

 

ओबीओ लखनऊ-चैप्टर की ऑनलाइन मासिक ‘साहित्य संध्या’ 18 अक्टूबर 2020 (रविवार) को सायं 3 बजे प्रारंभ हुई I  इस कार्यक्रम की अध्यक्षता डॉ. अंजना मुखोपाध्याय ने की I संचालन के दायित्व का निर्वहन मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ ने किया I कार्यक्रम के प्रथम सत्र में डॉ.गोपाल नारायन श्रीवास्तव की निम्नाकित रचना पर उपस्थित विद्वानों ने अपने विचार रखे I

            /ग़ज़ल                                                                                                                                                  तू यार बसा मन में  दिलदार  बसा मन में

हद छोड़ हुआ अनहद  विस्तार सजा मन में II1II   

आकाश सितारों  में  जग ढूँढ  रहा तुझको

तू मेघ-प्रिया  बनकर  है  कौंध रहा मन में II2II 

झंकार रही  पायल  स्वर  वेणु  प्रवाहित है 

आभास  हृदय  करता  है रास रचा मन में II3II 

तू कृष्ण  हुआ प्रियतम  वृषभानु कुमारी मैं 

अभिसार हुआ  ऐसा  मैं काँप  उठा मन मे II4II 

आवेश  भरी  चपला सी  धार प्रखर उसकी

जब तार छुआ विभु से आलोक भरा मन में II5II 

जब चाँद हँसा करता  जब रात मदिर होती

तू नींद  चुरा लेता  सौ द्वंद्व मचा मन में II6II 

रस सोम  पिला तूने  सब लूट  लिया मेरा

शृंगार कहाँ  अब है  निर्वेद  धंसा मन में II7II 

 

संचालक के आवाहन पर परिचर्चा का आरंभ कवि एव गज़लकार आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ ने कहां कि डॉ. श्रीवास्तव की उपरियुक्त रचना के शीर्षक में गीत/ग़ज़ल लिखा है | इस सम्बन्ध में जानना चाहता हूँ कि क्या इस बात में कोई भ्रम था कि यह गीत है या ग़ज़ल है | जहाँ तक मुझे ज्ञात है डॉ, श्रीवास्तव ने जब इस रचना का पाठ गोष्ठी या मंच पर किया है, इसे ग़ज़ल कहकर ही संबोधित किया है और मेरे हिसाब से यही सही भी है क्योंकि ये ग़ज़ल “बहरे हज़ज़ मुसम्मन अखरब – रूप (1)” में लिखी गयी है, जिसका मीटर “मफऊलु मुफाईलुन मफऊलु मुफाईलुन” यानि कि “221 1222 221 1222” है |

प्रस्तुत ग़ज़ल शुद्ध रूप से हिंदी भाषा की ग़ज़ल है | डॉ. श्रीवास्तव जब हिंदी की ग़ज़ल लिखते हैं, तो फिर वे पूरी तरह से हिंदी के शब्दों का ही इस्तेमाल करते हैं | जहाँ तक मैं समझ सका हूँ ग़ज़ल तो यह हिंदी भाषा की है लेकिन इसमें जो प्राणतत्त्व है वो पूरी तरह से उर्दू ग़ज़ल का है | उर्दू ग़ज़ल अपने प्रारंभिक दौर में और बहुत बाद तक भी प्रेम के रंग में रंगी हुई थी | इसे पढने से लगता है कि ये ग़ज़ल का मुसलसल रूप है क्यूंकि पूरी ग़ज़ल एक ही भाव में बंधी हुई है | ग़ज़ल का मतला अद्भुत है -

तू यार बसा मन में,  दिलदार बसा मन में I

हद छोड़ हुआ अनहद विस्तार सजा मन में II 

हद छोड़कर अनहद हो जाना अलौकिक है | एक शे’र और बहुत खूबसूरत है-  

झंकार रही पायल स्वर वेणु प्रवाहित है,

आभास हृदय करता है रास रचा मन में |

यहाँ पर ‘रास’ शब्द सिर्फ नृत्य से संबंधित नहीं है बल्कि भगवान श्रीकृष्ण और गोपियों के महारास से संबंधित है | यदि हृदय को उसका आभास हो जाए तो वह भाव अव्यक्त हो

जाता है |

आवेश  भरी चपला,  सी धार प्रखर उसकी,

जब तार छुआ विभु से आलोक भरा मन में I  

यह शे’र भी अपने आपमें अद्वितीय है | यहाँ पर परम ब्रह्म से आत्म तत्त्व के मिलन की जानिब इशारा किया गया है | मुझे स्वरचित गीत की पंक्तियाँ याद आ गयीं –

जब ईश्वर के साथ हमारा तारतम्य हो जाता है,

तब रहस्य नश्वर जीवन का बोधगम्य हो जाता है |

आलोच्य ग़ज़ल का एक और मनोहारी शे’र है -

तू कृष्ण हुआ प्रियतम वृषभानु कुमारी मैं,

अभिसार हुआ ऐसा मैं काँप उठा मन में I  

इस शे’र में उर्दू ग़ज़ल के उलट शायर में खुद “राधा भाव” का उत्पन्न होना एक और विशेष बात है, जो भारतीय प्र्नप्री की सगति में है, क्योंकि उर्दू ग़ज़लों में ईश्वर को प्रियतमा के रूप में देखते हुए उस से संवाद स्थापित करने की परपरा है I आखिरी शे’र का तो कहना ही क्या-

रस सोम पिला तूने,  सब लूट लिया मेरा,

‘शृंगार कहाँ अब है निर्वेद धँसा मन में |

तब कुछ भी कहना शेष नहीं रह जाता जब ‘श्रृंगार’ का स्थान ‘निर्वेद’ ले लेता है |

इस ग़ज़ल में   यदि एक-दो जगहों पर “ऐबे तनाफुर” और “तक़ाबुले रदीफ़” दोष को नजरंदाज कर दे तो, कहना न होगा कि हमें एक बेहतरीन ग़ज़ल पढने को मिली है | हालांकि अगर शे’र खराब हो रहा हो तो इन मामूली दोषों को को नज़रंदाज़ किया जा सकता है | बाकी काम अरूज़ियों का होता है | ज़रूरी नहीं कि एक अच्छा अरूज़ी एक अच्छा शायर भी हो लेकिन अगर किसी को दोनों बातों में महारत हासिल हो तो ये सोने पर सुहागे वाली बात है |

हास्य कवि मृगांक श्रीवास्तव ने कहा कि डॉ. श्रीवास्तव  की रचना पढ़ कर मुझे दो पंक्तियां याद आ रही हैं ....

मैं ढूंढता तुझे था, जब कुंज और वन में ।

तू था मुझे बुलाता, संगीत और भजन में।।

ईश्वर की व्यापकता अंतर्मन से लेकर अनन्त तक है, जिसे हम तमाम तरह से तलाशते रहते हैं । वह बहुत सुंदर प्राकृतिक रूपों में और अनुभूतियों में परिलक्षित होती है । यह बात बहुत सुंदरता से इस गीत में तरह-तरह से उकेरी गयी है । ऐसे श्रेष्ठ साहित्यकार की रचना पढ़कर चार पंक्तियां उठीं हैं मेरे मन में-

गीत ग़ज़ल छंद के मर्मज्ञ, हैं अनुज श्री गोपाल।

व्याकरण मात्रा और भाषा ज्ञान में, तुम हो एक मिशाल।

गद्य पद्य के पंडित, लेख कथा उपन्यास और काव्यानुवाद।

टिप्पणी ऐसे साहित्यकार पर, ज्यों सूरज को मशाल।

डॉ. अशोक शर्मा ने कहा  कि ग़ज़ल बहुत सारगर्भित है I  मैं ठीक से समझ नहीं पा रहा हूँ ‘’तू मेघप्रिया बन कर, है कौंध रहा मन में” यह किसके लिए है ?  थोड़ा कठिन लग रही है. एक और पंक्ति का अर्थ समझने में भी कठिनाई हो रही है “अभिसार हुआ ऐसा मैं काँप उठा मन में” क्यों?

डॉ. शरदिंदु मुकर्जी के अनुसार डॉ. श्रीवास्तव की रचना आद्योपान्त ईश्वर के प्रति समर्पित है, ऐसा मुझे लगा । शिल्प तो हमेशा की तरह उच्च कोटि का है । प्रशंसनीय ।

कवयित्री कुंती मुकर्जी के अनुसार गोपाल जी की रचना बहुत सुंदर और सरस है I

डॉ. अर्चना प्रकाश ने कहा कि यह ग़ज़ल विशिष्ट स्थितियों में शृंगारिक भावों से परिपूर्ण मनःस्थिति का सजीव चित्रण प्रस्तुत करती है । मेघप्रिया, आभास, अभिसार ,आलोक, सौ द्वंद जैसी अद्भुत उपमाओं से कभी मन काँप उठता है कभी मन में आलोक भरता है, कभी उसी मन में एक साथ सौ द्वंद भी उठते है ।

"रस सोम पिला सब लूट लिया मेरा" -में प्रेम भाव की पराकाष्ठा है । ‘निर्वेद धंसा मन में’ – एक अद्भत अनोखी अनुभूति है । मन की ये सारी अवस्थाएं संयोग शृंगार की अति श्रेष्ठतम उपलब्धियां है - "जिसे ढूढ़ता था जग में ,वह कस्तूरी सा छिपा रहा मन में !"    ग़ज़ल में मन का विस्तार, मन का अभिसार, मन का आभास और मन का निर्वेद आदरणीय गोपाल जी की अलौकिक अनुभूतियां हैं । प्रियतम की समस्त कलाएं मन के भीतर मुखरित होने से मन का विस्तार अनहद हो जाता है । यह ग़ज़ल बड़ी ही मनोहर व आह्लादकारी है । अलंकारों की अद्भुत छटा मनमोहक है ।

कवयित्री नमिता सुंदर के अनुसार वह प्रेम जो ब्रह्मांड की सीमायें तोड़ता निराकार में समाहित हो जाय, वही शाश्वत है और इसी आध्यात्मिक प्रेम को समर्पित है गोपाल जी की यह गजल। प्रेम जो प्रकृतिक संगीत सा निसंग बहे, कान्हा की वंशी सा बजे और राधा के रास सा सुध-बुध खो विराट में कुछ ऐसे रच-बस जाये कि सारे भेद-विभेद से परे हो जाय।

कवयित्री आभा खरे के अनुसार आज की विवेच्य रचना गोपाल जी की शृंगार रस में पगी और अध्यात्म की ओर ले जाती बेहद सुंदर सुकोमल सी ग़ज़ल प्रस्तुति है । इस गीत/ग़ज़ल पर कुछ कह पाऊँ ...इस से पहले एक जिज्ञासा का निवारण मैं आदरणीय दादा से जरूर करना चाहूंगी। गीत/ग़ज़ल मात्र शीर्षक है ? और यदि शीर्षक नहीं तो गीत/ग़ज़ल कहने का क्या अभिप्राय है? मेरी इस विनम्र जिज्ञासा से परे प्रस्तुत ग़ज़ल की हर एक पंक्ति बहुत प्रभावी और मन को सुकून देती हुई आगे बढ़ती है। आत्मा के परमात्मा से मिलने की उत्कंठा के अतिरिक्त कई और आयामों से भी जोड़ती है। धरती की बादलों से, प्रेमिका की अपने प्रेमी से, गोपियों की अपने आराध्य कृष्ण से मिलने की उत्कंठा के दृश्य भी उकेरती है और मुझे लगता है कि  किसी भी रचना का यही गुण उसे विशिष्ट बनाता है और सार्थकता प्रदान करता है, तभी वह अपने पाठकों से कई-कई आयामों से जुड़ती है। अंतिम पंक्तियाँ अध्यात्म की चरम अनुभूति तक ले जाती हैं।

कवयित्री संध्या सिंह ने कहा कि आदरणीय गोपाल नारायण जी की यह ग़ज़ल बेहद सूफियाना अंदाज़ में लिखी गयी है l शिल्प और कहन पर आलोक रावत की विस्तृत टिप्पणी के बात कुछ शेष नहीं बचा जो कहा जा सके l बेहद सुगठित शिल्प में अध्यात्म की ऊँचाई को स्पर्श करते अशआर l विशुद्ध हिन्दी की अनंत से एकाकारिता को सधे हुए शब्दों में व्यक्त करती एक संपूर्ण रचना l

गज़लकार भूपेन्द्र सिंह ने कहा कि मैंने श्री गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी की सुंदर ग़ज़ल पढ़ी I शिल्प की दृष्टि से  221  1222  221  1222  के  वज़्न,  मफ़ऊलु मफ़ाईलुन मफ़ऊलु मफ़ाईलुन अरकान में कही गयी ये ग़ज़ल "बह्रे - हज़ज मुसम्मन अख़रब" में है और अरूज़ के मूल मापदण्डों के अनुरूप है I  

इसका भाव पक्ष स्पष्ट है I  ईश्वर को सम्बोधित करती ये ग़ज़ल मूलतः उसकी अपने अंतर में उपस्थिति के प्रभाव को रेखांकित करती है जो उसके अस्तित्व को असीम बनाता है तथा उसे प्रेम से आलोकित व झंकृत कर देता है. वह इस आवेश से ऐसे भर जाता है कि वह  भौतिकता के प्रति उदासीन हो कर ईश्वर-प्रेम में डूब जाता है. रचना अर्थ पूर्ण, व्यापक तथा शब्द-लालित्य-युक्त है I  

सचालक श्री मनोज शुक्ल ने ग़ज़ल के बारे में कहा कि सुंदर रचना है I अभिसार से काँपना मेरी भी समझ में न आया या हो सकता है कम अनुभव के कारण ऐसा हो । द्वंद्व की वर्तनी अशुद्ध है और द्वंद्व बहुवचन है।

कवि अजय कुमार ‘विकल‘ के अनुसार गोपाल जी की ग़ज़ल अपने-आप में अद्वितीय है l कवि ने अपनी आत्मा को परमात्मा से जोड़ने के लिए सूफ़ी विचारधारा को अपनाया है l ईश्वर को पाने की ललक एक प्रेमी की भांति अनुनय-विनय करना तत्पश्चात विभिन्न माध्यमों से उसको अध्यात्म से जोड़ने का अतुलनीय प्रयास करना कवि की पारलौकिक चेतना का परिणाम है l 'अनहद' और 'निर्वेद' जैसे अद्भुत शब्द इसके ठोस प्रमाण हैं l 'अनहद' से ईश्वर को असीमित और अपारगम्य बताना तथा 'निर्वेद' से ईश्वर के पास पहुंच कर स्वयं निस्तेज हो जाने का भाव प्रदर्शित होता है l गोपाल जी की सशक्त लेखनी ने जीवन में अध्यात्म और ईश्वर को एक प्रियतम के रूप में पाने की उत्कट इच्छा को जाग्रत किया है l यथार्थ में कविता अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में पूर्णतः सफल हुई है I

कार्यक्रम की अध्यक्ष  डॉ. अंजना मुखोपाध्याय के अनुसार लयबद्ध ग़ज़ल की हर पंक्तियों में प्रेयसी का प्रियतम से अनायास मिलन की अभिव्यक्ति पाठक को अनन्त आवेश तक ले जाती है। सितारों मे, बादलों में, पायल की झंकार में, चाँदनी में एकात्मता का आग्रह मन को आलोकित कर रहा है। मोहित मन अब बाह्य शृंगार की आवश्यकता नहीं महसूस करता वह तो प्रभु के अस्तित्व में ही पूर्ण रूप से विभोर है।

                        लेखकीय वक्तव्य

अंत में लेखकीय वक्तव्य देते हुए डॉ, गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने  आलोक रावत ‘आहत लखनवी’ और सुश्री आभा खरे द्वारा उठाये गये प्रश्न का समाधान करते हुए कहा – “ प्रस्तुत रचना  ग़ज़ल ही है गीत नहीं I अनावधान वश दोनों टंकित हो गये I इसके लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूँ I मैंने यह भी अनुभव किया कि ग़ज़ल की मूल भावना तक पहुँचने में कुछ साथियों को कठिनाई हुयी,  वे चाहे तो मुझसे अलग से चर्चा कर सकते थे , क्योकि जोकुछ पटल पर आ जाता है वह अभिलेख बन जाता है I जो प्रश्न साथियों ने उठाये है उनका समाधान मैं इस वक्तव्य में अवश्य करना चाहूँगा I  मेरे अग्रज तुल्य डॉ. अशोक शर्मा ने कहा कि वह  ग़ज़ल को  ठीक से समझ नहीं पा रहे हैं --‘’तू मेघप्रिया बन कर,  है कौंध रहा मन में” यह किसके लिए है?  थोड़ा कठिन लग रही है I

मेरे विद्वान् साथी ने पहली पंक्ति पर शायद ध्यान नहीं दिया, वरना यह कठिनाई सभवतः  नहीं  होती  –

आकाश सितारों में जग ढूँढ रहा तुझको

तू मेघ-प्रिया बनकर है कौंध रहा मन में I

[संसार तुझे (ईश्वर को ) आकाश सितारों में ढूंढ रहा है और तू बिजली के सदृश्य मेरे मन में कौंध रहा है I कबीर ने भी कहा है – ‘ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग ।तेरा साईं तुज्झ में जाग सके तो जाग’ या फिर ‘कस्तूरी कुंडल बसै मृग ढूढ़ै वन माहि I ऐसे घट घट राम हैं, दुनिया जाने नाहि।‘]

आ. शर्मा जी और मनोल शुक्ल ‘मनुज’ की शंका यह भी है कि - “अभिसार हुआ ऐसा मैं काँप उठा मन में” क्यों?

मैंने ओ बी ओ पटल, वाट्स ऐप  पर ’अभिसार’ पर एक लेख डाला था I वह शायद समग्रता से पढ़ा नहीं गया, उसमे मैंने स्पष्ट किया था कि अभिसार प्रणय, रति अथवा समागम नहीं  है I यह संकेत-स्थल पर प्रेमी और प्रेमिका के जाने या अभिसरण करने की क्रिया है I यह अभिसरण शुद्ध परकीया प्रेम में ही होता है और यह एक अनैतिक-असामजिक आचार है I नायक या नायिका जो भी अभिसरण करता है, उसके मन में बहुत सी शंकाए होती हैं I वह  यह कार्य गोपनीयता बरतते हुए चोरी और दुस्साहस से करता है I  लोक-निदा,  देखे जाने या  रंगे हाथ पकड़े जाने का डर, घर से दूर आने का जोखिम, मिलन की पूर्वापर दुश्चिंता, अपने दुस्साहस पर पछतावा और द्वंद्व ऐसे कितने मानसिक विकारों से वे गुजरते हैं I ऐसी अवस्था में तैतीस संचारी भाव क्या शांत रह सकते है I चोरी करने वाला क्या भीतर से कांपता नहीं है I इसके आगे का निर्णय मैं सुधी विद्वानों पर ही छोड़ता हूँ I

मनोज जी ने द्वंद्व की वर्तनी पर सवाल उठाया I पर यह सवाल गलत है द्वन्द और द्वंद्व दोनों सही है और समानार्थी है I आजकल लोग द्वन्द को बरतरफ कर द्वंद्व को अशुद्ध मानने लगे है और यह परंपरा बन गयी है, पर आप हिन्दी का कोइ कोष उठाकर देखिये आपको दोनों ही शब्द पूरी मर्यादा से मिलेंगे i  काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने डॉ. श्यामसुंदर   दास के संपादन में हिन्दी का जो सबसे प्राथमिक प्रामणिक शब्द कोश ‘हिन्दी शब्द-सागर’ आठ भागों में निकाला था , उसमे भी ये दोनों शब्द हैं और उनके अर्थ भी समान है I यथा - 

द्वंद  :पुं० [द्वंद] दो चीजों का जोड़ा। युग्म। पुं० [सं० द्वंद] घड़ियाल जिस पर आघात करके समय सूचित किया जाता है। पुं० [सं० द्वंद] १. जोड़ा। युग्म। २. दो आदमियों में होनेवाली लड़ाई-------------------

द्वंद्व  :पुं० [सं० द्वि शब्द से नि० सिद्धि] १. जोड़ा। युग्म। २. ऐसे दो गुण, पदार्थ या स्थितियाँ जो परस्पर विरोधी हों। जैसे—सुख और दुःख ताप और शीत -----------------

दूसरी बात जो मनोज जी ने कही कि द्वंद्व बहुबचन है, यह भी पूर्ण सत्य नहीं है I द्वंद्व  तभी बहुबचन है जब हम इसका सामासिक प्रयोग करते है या युग्म (जोड़े) के अर्थ में इसका व्यवहार करते है I इस गजल में ऐसा प्रयोजन नहीं है i ग़ज़ल में इसका अभिप्राय– उलझन, बखेड़ा, झंझट, जंजाल या संशय मात्र ही है I

शंकाओं के समाधान के बाद मैं अपनी गज़ल पर आता हूँ I हम जानते हैं कि ईश्वर के प्रति जिज्ञासा, उसे पाने या खोजने की ललक, उसे अपने ही स्वरुप में या सृष्टि के विस्तार में देखना भारतीय मनीषा की बड़ी सुदृढ़ परंपरा रही है I हिदी साहित्य में जब फारसी के प्रभाव से मसनवी शैली में प्रेमाख्यानक काव्य आये तो सूफी मतावलंबियों ने अल्लाह से प्रेम करने करने के लिए भी लौकिक प्रेम को ही अपनी  सीढ़ी बनाया I तभी से हिदी में लौकिक प्रेम को आध्यात्मिक दिशा देने की एक परंपरा सी बन गयी I यही कारण था कि भगवान कृष्ण और राधा के लौकिक प्रेम को आध्यात्मिक चश्मे से देखना कवियों का पसंदीदा शगल बन गया I शृंगार रस को दैहिकता से अलग कर अधिकाधिक पवित्र स्वरुप देकर उसे ‘भक्ति’ में ढाल दिया गया I भक्ति इसी कारण बड़ी जद्दोजहद में रहा और रस की श्रेणी में नहीं आ पाया I पर अब भक्ति को भी रस मानते हैं और शृंगार रस का स्थाई भाव् यदि ‘रति’ है तो भक्ति रस का ‘देव रति’ है I अर्थात ‘रति’ दोनों में ही है I

मेरी इस गजल में भी लौकिक प्रेम को आध्यात्मिक दिशा देने की दृष्टि ही है I बात पुरानी हो मगर कहन में यदि नवीनता हो तो वह कविता भी भली लग सकती है I मेरे इस प्रयास की तुलना में आप सबकी टिप्पणियों का स्तर बहुत-बहुत ऊंचा है I मैं इतना समर्थ नहीं, पर सभी विद्वान् कवि एवं कवयत्रियों का, जिन्होंने इस परिचर्चा में भाग लिया उन सबका हृदय से आभारी हूँ I

 

 (मौलिक  एवं अप्रकाशित )

 

Views: 281

Reply to This

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on Nilesh Shevgaonkar's blog post ग़ज़ल नूर की - मुक़ाबिल ज़ुल्म के लश्कर खड़े हैं
"आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन। सुंदर गजल हुई है। हार्दिक बधाई।"
11 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on बृजेश कुमार 'ब्रज''s blog post गीत-आह बुरा हो कृष्ण तुम्हारा
"आ. भाई बृजेश जी, सादर अभिवादन। गीत का प्रयास अच्छा हुआ है। पर भाई रवि जी की बातों से सहमत हूँ।…"
11 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

घाव भले भर पीर न कोई मरने दे - लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

अच्छा लगता है गम को तन्हाई मेंमिलना आकर तू हमको तन्हाई में।१।*दीप तले क्यों बैठ गया साथी आकर क्या…See More
19 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post कहते हो बात रोज ही आँखें तरेर कर-लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"
"आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति और स्नेह के लिए आभार। यह रदीफ कई महीनो से दिमाग…"
yesterday
PHOOL SINGH posted a blog post

यथार्थवाद और जीवन

यथार्थवाद और जीवनवास्तविक होना स्वाभाविक और प्रशंसनीय है, परंतु जरूरत से अधिक वास्तविकता अक्सर…See More
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"शुक्रिया आदरणीय। कसावट हमेशा आवश्यक नहीं। अनावश्यक अथवा दोहराए गए शब्द या भाव या वाक्य या वाक्यांश…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"हार्दिक धन्यवाद आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी।"
yesterday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"परिवार के विघटन  उसके कारणों और परिणामों पर आपकी कलम अच्छी चली है आदरणीया रक्षित सिंह जी…"
Monday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"आ. प्रतिभा बहन, सादर अभिवादन।सुंदर और समसामयिक लघुकथा हुई है। हार्दिक बधाई।"
Monday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"आदाब। प्रदत्त विषय को एक दिलचस्प आयाम देते हुए इस उम्दा कथानक और रचना हेतु हार्दिक बधाई आदरणीया…"
Monday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"आदरणीय शहज़ाद उस्मानी जी, आपकी टिप्पणी के लिए बहुत बहुत धन्यवाद। शीर्षक लिखना भूल गया जिसके लिए…"
Monday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 (जय/पराजय)
"समय _____ "बिना हाथ पाँव धोये अन्दर मत आना। पानी साबुन सब रखा है बाहर और फिर नहा…"
Monday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service