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दीप को मौन बलना है अब रात भर // --सौरभ

212 212 212 212 

 

इस तमस में सँभलना है अब रात भर

दीप के भाव जलना है अब रात भर

 

हर अँधेरा निपट कालिमा ही नहीं

एक विश्वास पलना है अब रात भर

 

एकपक्षीय प्रेमिल विचारों भरे

इन चरागों को जलना है अब रात भर

 

निर्निमेषी नयन का निवेदन लिये 

मन से मन तक टहलना है अब रात भर

 

देह को देह की भी न अनुभूति हो

मोम जैसे पिघलना है अब रात भर

 

अल्पनाओं सजी गोद में बैठ कर

दीप को मौन बलना है अब रात…

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Added by Saurabh Pandey on October 29, 2024 at 9:55pm — No Comments

दोहा पंचक. . . करवाचौथ

दोहा पंचक. . . . करवाचौथ

चली सुहागन चाँद का, करने को दीदार ।

खैर सजन की चाँद से, माँगे बारम्बार ।।

सधवा ढूँढे चाँद को, विभावरी में आज ।

नहीं प्रतीक्षा का उसे, भाता यह अंदाज ।।

पावन करवा चौथ का, आया है त्योहार ।

सधवा देखे चाँद को, कर सोलह शृंगार ।।

अद्भुत करवा चौथ का, होता है त्योहार ।

निर्जल रह कर माँगती, अपने पति का प्यार ।।

भरा माँग में उम्र भर , रहे सदा सिन्दूर ।

हरदम दमके आँख में , सदा सजन का नूर ।।

 

सुशील सरना /…

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Added by Sushil Sarna on October 20, 2024 at 3:13pm — 3 Comments

ग़ज़ल

मुझ को मेरी मंज़िल से मिला क्यूँ नहीं देते

आख़िर मुझे तुम अपना पता क्यूँ नहीं देते

जज़्बात के शोलों को हवा क्यूँ नहीं देते

तुम आग मुहब्बत की लगा क्यूँ नहीं देते

जब आप को बे इंतिहा मुझ से है मुहब्बत

फिर हाथ मेरी सम्त बढ़ा क्यूँ नहीं देते

जो बन के सितारे हैं रवां आँख से आँसू

ये ज़ीस्त की ज़ुल्मत को मिटा क्यूँ नहीं देते

जो…

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Added by Mamta gupta on October 12, 2024 at 11:30pm — No Comments

संबंध

"इस रात की खामोशी में, मुझे चीखने दो,

फिर एक बार, मैं ठहर जाऊंगा ....

चरागों का धुआं कुछ कह गया,

जैसे लाचार मौसम की थम-सी गई सांसें,

बहकी हुई हवाओं में खुद को खो रही हैं ...

रात ने बादलों की रजाई ओढ़ ली है,

जब सुबह का सूरज छत से उतर कर आंगन में बिखर जाएगा,

गेंदे जल उठेंगे,

लेकिन रातरानी की चमक मंद पड़ जाएगी ...

तुलसी के पत्ते की ओस में, तुम धूप को ओढ़ लेना,

जब मेरी याद तुम्हारी पलकों में छलक उठेगी,

वह रिश्ता भी बह उठेगा,

जो कभी ठहरा… Continue

Added by Amod Kumar Srivastava on October 10, 2024 at 2:37pm — No Comments

ग़ज़ल ; पतझड़ के जैसा आलम है विरह की सी पुरवाई है

२२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

पतझड़ के जैसा आलम है विरह की सी पुरवाई है

ये कैसा मौसम आया है जिसका रंग ज़ुदाई है

घूमते रहते हैं कई साये दिल के अँधेरे कमरे में

काट रही है पल पल मन को ग़म की रात कसाई है

जंगल जंगल घूम रहा हूँ लेकर अपनी बेचैनी

ख़ामोशी में शोर बपा है ये कैसी तन्हाई है

ना जाने क्या सोच रही है मन ही मन बैठी दुल्हन

आँखों में इक हैरानी है चेहरे पे रानाई है

शादी का अवसर लाया है ग़म के साथ…

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Added by Aazi Tamaam on October 5, 2024 at 10:40am — No Comments

दोहा सप्तक. . . . संबंध

दोहा सप्तक. . . . संबंध

पति-पत्नी के मध्य क्यों ,बढ़ने लगे तलाक ।

थोड़े से टकराव में, रिश्ते होते खाक ।।

अहम तोड़ता आजकल , आपस का माधुर्य ।

तार - तार सिन्दूर का, हो जाता सौन्दर्य ।।

खूब तमाशा हो रहा, अदालतों के द्वार ।

आपस के संबंध अब, खूब करें तकरार ।।

अपने-अपने दम्भ की, तोड़े जो प्राचीर ।

उस जोड़े की फिर सदा, सुखमय हो तकदीर ।।

पति-पत्नी के बीच में, बड़ी अहम की होड़ ।

जनम - जनम के साथ को, दिया बीच में छोड़। ।

जरा- जरा सी बात पर,…

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Added by Sushil Sarna on September 23, 2024 at 3:41pm — No Comments

दोहा पंचक. . . . दरिंदगी

दोहा पंचक. . . . . दरिंदगी

चाहे जिसको नोचते, वहशी कामुक लोग ।

फैल वासना का रहा , अजब घृणित यह रोग ।।

बेबस अबला क्या करे, जब कामुक लूटें लाज ।

रोज -रोज  इस कृत्य से, घायल हुआ समाज ।।

अबला सबला हो गई, कहने की है बात ।

जाने कितने सह रही, घुट-घुट वो आघात ।।

नजरें नीची लाज की, वहशी करता मौज ।

खुलेआम ही हो रहा, घृणित तमाशा रोज ।।

छलनी सब सपने हुए, छलनी हुआ शरीर ।

कौन सुने संसार में, अबला  अंतस  पीर ।।

सुशील सरना /…

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Added by Sushil Sarna on September 20, 2024 at 3:58pm — No Comments

ग़ज़ल नूर की - तो फिर जन्नतों की कहाँ जुस्तजू हो

.

तो फिर जन्नतों की कहाँ जुस्तजू हो

जो मुझ में नुमायाँ फ़क़त तू ही तू हो.

.

ये रौशन ज़मीरी अमल एक माँगे

नदामत के अश्कों से दिल का वुज़ू हो.

.

जो तख़लीक़ सब की सभी से जुदा है

भला राह मुक्ति की क्यूँ  हू-ब-हू हो.

.

कभी हो ख़यालात से ज़ह’न ख़ाली

ख़लाओं से भी तो कभी गुफ़्तगू हो.

.

वो मुल्हिद नहीं हो मगर ये है मुमकिन

उसे बस सवालात करने की ख़ू हो.

(मुल्हिद--नास्तिक) (ख़ू -आदत)

.

निलेश "नूर"

मौलिक/…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on September 18, 2024 at 4:51pm — 4 Comments

दोहा दसक- रोटी

नभ पर लकदक  चाँद दे, रोटी का आभास

बिन रोटी कब प्रीत भी, करती कहो उजास।१।

*

सभ्य जगत में है  भले, हर वैज्ञानिक योग

रोटी खातिर आज भी, भटक रहे पर लोग।२।

*

भूखे  प्यासे  प्राण  को, बासी  रोटी खीर

लगता बस धनहीन को, मँहगाई का तीर।३।

*

रोटी ने जिसको किया, विवश और कमजोर।

उसकी सबने खींच  दी, हर  इज्जत की डोर।४।

*

पहली  रोटी  गाय  को,  अन्तिम  देना  स्वान।

पुरखों की इस सीख को, कौन रहा अब…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 17, 2024 at 10:31pm — No Comments

दोहा पंचक. . . . विविध

दोहा पंचक. . . . . . विविध

चढ़ते सूरज को सदा, करते सभी सलाम।

साँझ ढले तो भानु की, बीते तनहा शाम।।

भोर यहाँ बेनाम है, साँझ यहाँ गुमनाम ।

जिस्मों के बाजार में, हमदर्दी नाकाम ।।

छीना झपटी हो रही, किस पर हो विश्वास ।

रहबर ही देने लगे,  अपनों को संत्रास ।।

तनहाई के दौर में, यादों का है शोर ।

जुड़ी हुई है ख्वाब से, उसी ख्वाब की डोर ।।

मुझसे  ऊँचा क्यों भला,  उसका हो प्रासाद ।

यही सोचकर रात -दिन, सदा बढ़े  अवसाद ।।

सुशील…

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Added by Sushil Sarna on September 17, 2024 at 2:46pm — No Comments

दोहा सप्तक. . . . . रिश्ते

दोहा सप्तक. . . रिश्ते

सौदेबाजी रह गई, अब रिश्तों के बीच ।

सम्बन्धों को खा गई, स्वार्थ भाव की कीच ।।

रिश्तों के माधुर्य में, आने लगी खटास ।

धीरे-धीरे हो रही, क्षीण मिलन की प्यास ।।

मन में गाँठें बैर की, आभासी मुस्कान ।

नाम मात्र की रह गई, रिश्तों में पहचान ।।

आँगन छोटे कर गई, नफरत की दीवार ।

रिश्तों की गरिमा गई, अर्थ रार से हार ।।

रिश्ते रेशम डोर से, रखना जरा सँभाल ।

स्वार्थ बोझ से टूटती, अक्सर इनकी डाल ।।

सच्चे मन से जो…

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Added by Sushil Sarna on September 11, 2024 at 1:21pm — No Comments

करते तभी तुरंग से, आज गधे भी होड़

गर्दभ का हर युग रहे, गर्दभ सा ही हाल

बनता नहीं तुरंग वह, भले लगा ले नाल।१।

*

भूला पुरखे  थे  कभी, चेतक से बेजोड़

करते तभी तुरंग से, आज गधे भी होड़।२।

*

कहते लोग तुरंग को, कब होता घर दूर

चाहे हो वो काठ का, जय लाता भरपूर।३।

*

क्या पौरुष  के  रंग  वो, दिखलाता संसार।

मोड़ न पाया रास जो, बनकर अश्व सवार।४।

*

रथ में जोते  चल  रहा, सूरज सात तुरंग

इसीलिए लड़ पा रहा, तम से लम्बी जंग।५।

*

घोड़े पर  जो  वायु  के, होता  बहुत सवार

छिन…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 10, 2024 at 6:09am — 3 Comments

दोहा दसक - गुण

आँखों तक ही रूप का, होता है संसार

किंतु गुणों से आत्मा, पाती है झंकार।१।

*

रखने तन को छरहरा, देते भोजन त्याग।

कोई कहता हैं नहीं, लेकिन गुण से जाग।२।

*

गुण की चिंता है किसे, दिखता रहे गँवार

अब तो केवल रूप को, सब ही रहे सँवार।३।

*

जाना जिसने रूप से, गुण का गुण है खास

उस के जीवन से कभी, जाती नहीं उजास।४।

*

गुण है गुण गुणवान को, अवगुण गुण है दुष्ट

जिस को भाता जो रहा, करता उसको पुष्ट।५।

*

गुण से बढ़कर रूप का, जो करता गुणगान

करता गुण…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 9, 2024 at 4:15am — 2 Comments

ग़ज़ल (ग़ज़ल में ऐब रखता हूँ...)

1222 - 1222 - 1222 - 1222

ग़ज़ल में ऐब रखता हूँ कि वो इस्लाह कर जाते

वगर्ना आजकल रुकते नहीं हैं बस गुज़र जाते 

न हो उनकी नज़र तो बाँध भी पाता नहीं मिसरा 

ग़ज़ल हो नज़्म हो अशआर मेरे सब बिखर जाते

 

बड़ी मुद्दत से मैं भी कब 'मुरस्सा' नज़्म कह पाया 

ग़ज़ल पर सरसरी नज़रों ही से वो भी गुज़र जाते

अरूज़ी हैं अदब-दाँ वो अगर बारीक-बीनी से 

न देते इल्म की दौलत तो कैसे हम निखर जाते

मिले हैं ओ. बी. ओ.…

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Added by अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी on September 8, 2024 at 5:15pm — 20 Comments

दोहा दसक



जूते तो शोरूम  में, पुस्तक अब फुटपाथ।

कैसे लोगो फिर लगे, कहो तरक्की हाथ।२।

*

कलयुग में उलटा हुआ, मानव का आचार

महल बनाता श्वान  को, गायों को दुत्कार।२।

*

पढ़ो धर्म के  साथ  ही, नित  नूतन विज्ञान

तब जाकर होगा कहीं, सुंदर सकल जहान।३।

*

केवल कोरा ज्ञान ही, कब सुख का आधार

साथ चाहिए  सीख  में,  नैतिकता संस्कार।४।

*

दिखते पग पग खूब हैं, होते नित सतसंग

फिर भी करते…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 8, 2024 at 9:25am — No Comments

दोहा त्रयी .....वेदना

दोहा त्रयी. . . . वेदना

धीरे-धीरे ढह गए, रिश्तों के सब दुर्ग ।
बिखरे घर को देखते, घर के बड़े बुजुर्ग ।।

विगत काल की वेदना, देती है संताप ।
तनहा आँखों का भला , सुनता कौन विलाप ।।

बहुत छुपाया हो गई, व्यक्त उमर की पीर ।
झुर्री में रुक रुक चला, व्यथित नयन का नीर ।।

सुशील सरना / 28-8-24

मौलिक एवं अप्रकाशित 

Added by Sushil Sarna on August 28, 2024 at 2:00pm — 2 Comments

दोहा पंचक. . . प्रेम

दोहा पंचक. . . . प्रेम

प्रेम चेतना सूक्ष्म की, प्रेम प्रखर आलोक ।

प्रेम पृष्ठ है स्वप्न का, प्रेम न बदले मोक । ।

( मोक = केंचुल )

प्रेम स्वप्न परिधान है, प्रेम श्वांस की शान ।

प्रेम अमर इस भाव के , मिटते नहीं निशान ।।

प्रेम न माने जीत को, प्रेम न माने हार  ।

जीवन देता प्रेम को, एक शब्द स्वीकार ।।

प्रेम सदा निष्काम का , मिले सुखद  परिणाम ।

दूषित करती वासना, इसके रूप तमाम ।।

अटल सत्य संसार का, अविनाशी है प्रेम ।

भाव…

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Added by Sushil Sarna on August 25, 2024 at 3:30pm — No Comments

समय के दोहे -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

पतझड़ छोड़ वसन्त में,  उग जाते हैं शूल

जीवन में रहता नहीं, समय सदा अनुकूल।१।

*

सावन सूखा  बीतता, कभी  डुबोता जेठ

बिना भूल के भी समय, देता कान उमेठ।२।

*

करते सुख की कामना, मिलते हैं आघात

जब बोते  सूखा  पड़े, पकने  पर बरसात।३।

*

अनचाही जो हो दशा, दुखी न होना मीत

देना  मुट्ठी  बंद  ही, रही  समय  की  रीत।४।

*

रहा निराला ही सदा, यहाँ समय का खेल

जीवन कटे बिछोह में, मरण कराता मेल।५।

*

छुरी बगल में मीत के, दुश्मन के कर फूल

कैसे…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 24, 2024 at 9:23am — 2 Comments

दोहा पंचक. . . . . असली - नकली

दोहा पंचक .....  असली -नकली

हंस भेस में आजकल, कौआ बाँटे ज्ञान ।

पीतल सोना एक से, कैसे हो पहचान ।।

अपनेपन की आड़ में, लोग निकालें बैर ।

कौन किसी के वास्ते,  आज माँगता खैर ।।

अच्छी लगती झूठ की, वर्तमान में छाँव ।

चैन मगर मिलता वहाँ, जहाँ सत्य  की ठाँव ।।

धोखा देती है बहुत, अधरों की मुस्कान ।

मन में क्या है भेद कब, होती यह पहचान ।।

रिश्तों में  बुझता नहीं, अब नफरत  का दीप ।

दुर्गंधित जल में नहीं, मिलते मुक्ता सीप…

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Added by Sushil Sarna on August 23, 2024 at 4:41pm — 2 Comments

लौट रहे घन

लौट रहे घन

बाँध राखियाँ

धरती के आँगन को

हर इक प्यासे मन को

 

हरी-भरी चूनर में

धरती

मंद-मंद मुस्काये

हरा-भरा खेतों का

सावन

लहराये-इतराये

 

प्रेम प्रकट करने

झुक आयीं

शाखें नील गगन…

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Added by Ashok Kumar Raktale on August 22, 2024 at 6:59pm — 6 Comments

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