ग़ज़ल (पुलवामा के शहीदों को श्रद्धांजलि)
देके सर हम हो गए दुनिया से रुखसत दोस्तो l
तुम को करनी है वतन की अब हिफाज़त दोस्तो l
बाँध कर बैठो कफ़न अपने सरों पर हर घड़ी
सामने ना जाने कब आ जाए आफ़त दोस्तो l
उन दरिंदों का मिटा दें दुनिया से नामो निशां
मुल्क में फैला रहे हैं जो भी दहशत दोस्तो l
उसको मत देना मुआफ़ी मौत देना है उसे
जिसने पुलवामा में की है नीच हरकत दोस्तो l
हम को उनकी ईंट का पत्थर से देना…
ContinueAdded by Tasdiq Ahmed Khan on February 18, 2019 at 7:01pm — 10 Comments
मखमली से फूल नाज़ुक पत्तियों को रख दिया
शाम होते ही दरीचे पर दियों को रख दिया
लौट के आया तो टूटी चूड़ियों को रख दिया
वक़्त ने कुछ अनकही मजबूरियों को रख दिया
आंसुओं से तर-बतर तकिये रहे चुप देर तक
सलवटों ने चीखती खामोशियों को रख दिया
छोड़ना था गाँव जब रोज़ी कमाने के लिए
माँ ने बचपन में सुनाई लोरियों को रख दिया
भीड़ में लोगों की दिन भर हँस के बतियाती रही
रास्ते पर कब न जाने सिसकियों को रख…
ContinueAdded by दिगंबर नासवा on January 23, 2019 at 9:30am — 12 Comments
2122, 1122, 1122, 22/112
सुर्ख़रू शोख़ बहारों सा चहक जाओगे
इश्क़ के बाग़ में आओ तो गमक जाओगे
गर इरादे हुए हैं बर्फ़ से ख़ामोश तो क्या
गर्मी-ए-इश्क़ में आ जाओ दहक जाओगे
इश्क़ की ताब का अंदाज़ा भला है तुमको
इसकी ज़द में ही फ़क़त आओ लहक जाओगे
रौनक-ए-इश्क़ की ताक़त को न ललकारो तुम
ख़ूब ज़ाहिद हो मगर तुम भी बहक जाओगे
इश्क़ ख़ुश्बू है इसे बांधने की ज़िद न करो
इसमें घुल जाओ तो दुनिया में महक जाओगे
इश्क़ के रंग व…
ContinueAdded by क़मर जौनपुरी on January 23, 2019 at 5:30pm — 6 Comments
बह्र : 1222 1222 122
तुम्हारे शहर से मैं जा रहा हूँ
बिछड़ने से बहुत घबरा रहा हूँ
वहाँ दुनिया को तू अपना रही है
यहाँ दुनिया को मैं ठुकरा रहा हूँ
उठा कर हाथ से ये लाश अपनी
मैं अपने आप को दफ़ना रहा हूँ
तुम्हारे इश्क़ में बन कर मैं काँटा
सभी की आँख में चुभता रहा हूँ
नहीं मालूम जाना है कहाँ पर
न जाने मैं कहाँ से आ रहा हूँ
मुहब्बत रात दिन करनी थी तुमसे
तुम्हीं से…
ContinueAdded by Mahendra Kumar on January 31, 2019 at 7:51pm — 6 Comments
Added by Balram Dhakar on January 31, 2019 at 10:30pm — 8 Comments
ग़ज़ल (मिट चुके हैं प्यार में कितने ही सूरत देख कर)
(फाइ ला तुन _फाइ ला तुन _फाइ ला तुन _फाइ लु न)
मिट चुके हैं प्यार में कितने ही सूरत देख कर l
कीजिए गा हुस्न वालों से मुहब्बत देख कर l
मुझको आसारे मुसीबत का गुमां होने लगा
यक बयक उनका करम उनकी इनायत देख कर l
कुछ भी हो सकता है महफ़िल में संभल कर बैठिए
आ रहा हूँ उनकी आँखों में क़यामत देख कर l
देखता है कौन इज्ज़त और सीरत आज कल
जोड़ते हैं लोग रिश्ते सिर्फ़ दौलत देख…
Added by Tasdiq Ahmed Khan on February 3, 2019 at 7:43pm — 6 Comments
अरकान-1222 1222 122
किनारा हूँ तेरा तू इक नदी है
बसी तुझ में ही मेरी ज़िंदगी है।।
हमारे गाँव की यह बानगी है
पड़ोसी मुर्तुज़ा का राम जी है।।
ख़यालों का अजब है हाल यारो
गमों के साथ ही रहती ख़ुशी है।।
घटा गम की डराए तो न डरना
अँधेरे में ही दिखती चाँदनी है।।
मुकम्मल कौन है दुनिया में यारो
यहाँ हर शख़्स में कोई कमी है।।
बनाता है महल वो दूसरों का
मगर खुद की टपकती झोपड़ी…
Added by सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' on February 4, 2019 at 7:00am — 8 Comments
२२१ २१२१ १२२१ २१२
अपनी गरज़ से आप भी मिलते रहे मुझे
ग़म है कि फिर भी आशना कहते रहे मुझे //१
दिल की किताब आपने सच में पढ़ी कहाँ
पन्नों की तर्ह सिर्फ़ पलटते रहे मुझे //२
मिस्ले ग़ुबारे दूदे तमन्ना मैं मिट गया
बुझती हुई शमा' सा वो तकते रहे मुझे //३
सौते ग़ज़ल से मेरी निकलती थी यूँ फ़ुगाँ
महफ़िल में सब ख़मोशी से सुनते रहे मुझे…
Added by राज़ नवादवी on February 4, 2019 at 10:13am — 4 Comments
२२१/२१२१/१२२/१२१२
जब से वफा जहाँन में मेरी छली गयी
आँखों में डूबने की वो आदत चली गयी।१।
नफरत को लोग शान से सर पर बिठा रहे
हर बार मुँह पे प्यार के कालिख मली गयी।२।
अब है चमन ये राख तो करते मलाल क्यों
जब हम कहा करे थे तो सुध क्यों न ली गयी।३।
रातों के दीप भोर को देते सभी बुझा
देखी जो गत भलाई की आदत भली गयी।४।
माली को सिर्फ शूल से सुनते दुलार ढब
जिससे चमन से रुठ के हर एक कली…
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 4, 2019 at 12:05pm — 6 Comments
1212 1122 1212 22/112
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सुहानी शाम का मंज़र अजीब होता है
भुला दिया था जिसे वो क़रीब होता है//१
वो पाक जाम मिटा दे जो प्यास सदियों की
किसी किसी के लबों को नसीब होता है//२
मिली जहाँ में जिसे भी दुआ ग़रीबों की
नहीं वो शख़्स कभी बदनसीब होता है//३
वफ़ा से दे न सका जो सिला वफ़ाओं का
वही जहान में सबसे ग़रीब होता है//४
करे मुआफ़ जो छोटी बड़ी ख़ताओं को
वही तो जीस्त में सच्चा हबीब होता है//५
क़लम की…
ContinueAdded by क़मर जौनपुरी on January 3, 2019 at 7:00am — 4 Comments
(फाइ इलातु न _फ इ लातुन _फ इ लातुन _फ़े लुन)
ख़त्म कर के ही मुहब्बत का सफ़र जाऊंगा l
तू ने ठुकराया तो कूचे में ही मर जाऊँगा l
जो भी कहना है वो कह दीजिए ख़ामोश हैं क्यूँ
आपका फ़ैसला सुनके ही मैं घर जाऊँगा l
वकते आख़िर है मेरा पर्दा हटा दे अब तो
छोड़ कर मैं तेरे चहरे पे नज़र जाऊँगा l
आ गए वक़ते सितम अश्क अगर आँखों में
मैं सितमगर की निगाहों से उतर जाऊँगा l
लौट कर आऊंगा मैं सिर्फ़ तू इतना कह दे …
Added by Tasdiq Ahmed Khan on November 6, 2018 at 10:30am — 20 Comments
१२२२/१२२२/१२२२/१२२२
अकेला हार जाऊँगा, जरा तुम साथ आओ तो
अमा की रात लम्बी है कोई दीपक जलाओ तो।१।
ये बाहर का अँधेरा तो घड़ी भर के लिए है बस
सघन तम अंतसों में जो उसे आओ मिटाओ तो।२।
कहा बाती मुझे लेकिन जलूँ कैसे तुम्हारे बिन
भले माटी, स्वयं को अब चलो दीपक बनाओ तो।३।
गरीबी, भूख, नफरत, वासनाओं का मिटेगा तम
इन्हें जड़ से मिटाने को सभी नित कर बटाओ तो।४।
महज दस्तूर को दीपक जलाते इस अमा को सब
बने हर जन…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 7, 2018 at 7:36am — 13 Comments
2122---2122---2122---212
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नेकियाँ तो आपकी सारी भुला दी जाएँगी
ग़लतियाँ राई भी हों, पर्वत बना दी जाएँगी
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रौशनी दरकार होगी जब भी महलों को ज़रा
शह्र की सब झुग्गियाँ पल में जला दी जाएँगी
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फिर कोई तस्वीर हाकिम को लगी है आइना
उँगलियाँ तय हैं मुसव्विर की कटा दी जाएँगी
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इनके अरमानों की परवा अह्ले-महफ़िल को कहाँ
सुबह होते ही सभी शमएँ बुझा दी जाएँगी
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नाम पत्थर पर शहीदों के लिखे तो जाएँगे
हाँ, मगर क़ुर्बानियाँ उनकी भुला दी…
Added by दिनेश कुमार on November 7, 2018 at 10:22am — 15 Comments
1212 1122 1212 22
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हमारी रात उजालों से ख़ाली आई है
बड़ी उदास ये अबके दिवाली आई है //१
चमन उदास है कुछ यूँ ग़ुबारे हिज्राँ में
कली भी शाख़ पे ख़ुशबू से ख़ाली आई है //२
फ़ज़ा ख़मोश है घर की, अमा है सीने में
हमारा सोग मनाने रुदाली आई है //३
मवेशी खा गए या फिर है मारा पालों ने
कभी कभार ही फ़सलों पे बाली आई है…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on November 7, 2018 at 12:00pm — 16 Comments
प्रणय-हत्या
किसी मूल्यवान "अनन्त" रिश्ते का अन्त
विस्तरित होती एक और नई श्यामल वेदना का
दहकता हुया आशंकाहत आरम्भ
है तुम्हारे लिए शायद घूम-घुमाकर कुछ और "बातें"
या है किसी व्यवसायिक हानि और लाभ का समीकरण
सुनती थी क्षण-भंगुर है मीठे समीर की हर मीठी झकोर
पर "अनन्त" भी धूल के बवन्डर-सा भंगुर है
क्या करूँ ... मेरे साँवले हुए प्यार ने यह कभी सोचा न…
ContinueAdded by vijay nikore on November 9, 2018 at 6:30am — 6 Comments
सँभाले थे तूफ़ाँ उमड़ते हुए
मुहब्बत से अपनी बिछड़ते हुए.
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समुन्दर नमाज़ी लगे है कोई
जबीं साहिलों पे रगड़ते हुए.
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हिमालय सा मानों कोई बोझ है
लगा शर्म से मुझ को गड़ते हुए.
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“हर इक साँस ने”; उन से कहना ज़रूर
उन्हें ही पुकारा उखड़ते हुए.
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हराना ज़माने को मुश्किल न था
मगर ख़ुद से हारा मैं लड़ते हुए.
.
ज़रा देर को शम्स डूबा जो “नूर”
मिले मुझ को जुगनू अकड़ते हुए.
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निलेश "नूर"
मौलिक/…
Added by Nilesh Shevgaonkar on October 28, 2018 at 10:30am — 22 Comments
2122 2122 2122 212
हर दुआ पर आपके आमीन कह देने के बाद
चींटियाँ उड़ने लगीं, शाहीन कह देने के बाद
आपने तो ख़ून का भी दाम दुगना कर दिया
यूँ लहू का ज़ायका नमकीन कह देने के बाद
फिर अदालत ने भी ख़ामोशी की चादर ओढ़ ली
मसअले को वाक़ई संगीन कह देने के बाद
ये करिश्मा भी कहाँ कम था सियासतदान का
बिछ गईं दस्तार सब कालीन कह देने के…
Added by Balram Dhakar on October 24, 2018 at 12:00am — 20 Comments
"व्रत ने पवित्र कर दिया।" मानस के हृदय से आवाज़ आई। कठिन व्रत के बाद नवरात्री के अंतिम दिन स्नान आदि कर आईने के समक्ष स्वयं का विश्लेषण कर रहा वह हल्का और शांत महसूस कर रहा था। "अब माँ रुपी कन्याओं को भोग लगा दें।" हृदय फिर बोला। उसने गहरी-धीमी सांस भरते हुए आँखें मूँदीं और देवी को याद करते हुए पूजा के कमरे में चला गया। वहां बैठी कन्याओं को उसने प्रणाम किया और पानी भरा लोटा लेकर पहली कन्या के पैर धोने लगा।
लेकिन यह क्या! कन्या के पैरों पर उसे उसका हाथ राक्षसों के हाथ जैसा…
ContinueAdded by Chandresh Kumar Chhatlani on October 14, 2018 at 2:23pm — 17 Comments
पागल मन ..... (400 वीं कृति )
एक
लम्बे अंतराल के बाद
एक परिचित आभास
अजनबी अहसास
अंतस के पृष्ठों पे
जवाबों में उलझा
प्रश्नों का मेला
एकाकार के बाद भी
क्यूँ रहता है
आखिर
ये
पागल मन
अकेला
तुम भी न छुपा सकी
मैं भी न छुपा सका
हृदय प्रीत के
अनबोले से शब्द
स्मृतियाँ
नैन घनों से
तरल हो
अवसन्न से अधरों पर
क्या रुकी कि
मधुपल का हर पल
जीवित हो उठा
मन हस पड़ा…
Added by Sushil Sarna on October 15, 2018 at 7:48pm — 14 Comments
ग़ज़ल
बहुत दिनों से है बाक़ी ये काम करता चलूँ
मैं नफ़रतों का ही क़िस्सा तमाम करता चलूँ
अब आख़िरत का भी कुछ इन्तिज़ाम करता चलूँ
दिल-ओ-ज़मीर को अपने मैं राम करता चलूँ
जहाँ जहाँ से भी गुज़रूँ ये दिल कहे मेरा
तेरा ही ज़िक्र फ़क़त सुब्ह-ओ-शाम करता चलूँ
अमीर हो कि वो मुफ़लिस,बड़ा हो या छोटा
मिले जो राह में उसको सलाम करता चलूँ
गुज़रता है जो परेशान मुझको करता है
तेरे ख़याल से…
ContinueAdded by Samar kabeer on September 1, 2018 at 3:12pm — 52 Comments
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