दिल लगाएँ, दिल जलाएँ, दिल को रुसवा हम करें
चार दिन की ज़िन्दगी में और क्या क्या हम करें?
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एक दिन बौनों की बस्ती से गुज़रना क्या हुआ
चाहने वो यह लगे क़द अपना छोटा हम करें.
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हाथ बेचे ज़ह’न बेचा और फिर ईमाँ बिका
पेट की ख़ातिर भला अब और कितना हम करें?
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चाहते हैं हम को पाना और झिझकते भी हैं वो
मसअला यानी है उनका ख़ुद को सस्ता हम करें.
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इक सितम से रू-ब-रु हैं पर ज़ुबां ख़ुलती नहीं
ये ज़माना चाहता है उस का चर्चा हम करें.
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बा-अदब हैं हम सो जाहिल से फ़क़त इतना कहा
आप अपने से न जाएँ तो रवाना हम करें.
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निलेश "नूर"
मौलिक अप्रकाशित
Comment
धन्यवाद आ. लक्ष्मण जी
आ. भाई नीलेश जी सादर अभिवादन ।सुन्दर गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
शुक्रिया आ. सालिक जी
शुक्रिया आ. समर सर
जनाब निलेश जी आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है, बधाई स्वीकार करें ।
शुक्रिया आ. आज़ी साहेब
सादर प्रणाम आ नीलेश जी
बेहद खूबसूरत ग़ज़ल हुई है
सादर
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