वज़्न - 2122 2122 2122 212
ज़ीस्त की शीरीनियों से दूरियाँ रह जाएँगी
बिन तुम्हारे महज़ मुझ में तल्ख़ियाँ रह जाएँगी
वक़्त-ए-रुख़सत अश्क के गौहर लुटाएँगी बहुत
सूनी सूनी चश्म की फिर सीपियाँ रह जाएँगी
रेत पर लिख कर मिटाई हैं जो तुमने मेरे नाम
ज़ह्न में महफ़ूज़ ये सब चिट्ठियाँ रह जाएँगी
बातें मूसीक़ी-सी तेरी हैं मगर कल मेरे साथ
गुफ़्तगू करती हुई ख़ामोशियाँ रह जाएँगी
एक घर हो घर में तुम हो तुमसे सारी रौनकें
मेरे इन ख़्वाबों की इक दिन किरचियाँ रह जाएँगी
इश्क़ मेरा है मजाज़ी या हक़ीक़ी उंस है
बाद मेरे उलझी सारी गुत्थियाँ रह जाएँगी
'आरज़ू' थी हो मुकम्मल शख़्सियत मेरी मगर
तुमको खो कर मुझमें कितनी ख़ामियाँ रह जाएँगी
-©अंजुमन 'आरज़ू'
स्वरचित एवं अप्रकाशित
Comment
आदाब। अतीत, वर्तमान और भविष्य की हक़ीक़त बयाँ करती ख़ूबसूरत ग़ज़ल हेतु हार्दिक बधाई आदरणीया अंजुमन आरज़ू साहिबा।
आदरणीय बृजेश कुमार ब्रज जी आदाब, ,ग़ज़ल तक पहुंचने और हौसला अफ़जाई करने के लिए तहे दिल से शुक्रिया
वाह क्या कहने...बहुत खूबसूरत ग़ज़ल कही है...हार्दिक बधाई...
मोहतरम अमीरुद्दीन अमीर साहब आदाब, ग़ज़ल तक पहुंचने और दादओ तहसीन से नवाज़ने के लिए तहे दिल से शुक्रिया, जी उस्ताद मोहतरम समर कबीर साहब की इस्लाह पर ग़ौर किए बिना ग़ज़ल मुकम्मल कैसे होगी, मूल प्रति में सुधार लिया है यहां भी एडिट करने की कोशिश करती हूं, बहुत शुक्रिया
मुहतरमा अंजुमन 'आरज़ू' जी आदाब, ख़ूबसूरत और उम्दा ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद पेश करता हूँ । मुहतरम समर कबीर साहिब की इस्लाह पर ग़ौर कीजियेगा। सादर।
आदरणीय नाथ सोलंकी जी आदाब, ग़ज़ल तक पहुंचने और हौसला अफ़ज़ाई करने के लिए तहे दिल से शुक्रिया
आद0 अंजुमन मंसूरी जी सादर अभिवादन। बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने।बधाई स्वीकार कीजिये। आद0 समर साहब की इस्लाह से मुझे भी सीखने को मिलेगा
'बातें मूसीक़ी-सी तेरी हैं मगर कल मेरे साथ'
ये मिसरा अब ठीक है ।
बाक़ी बातें फ़ोन पर समझ लें ।
उस्ताद मोहतरम समर कबीर साहब आदाब, ग़ज़ल तक पहुंचने और इस्लाह करने के लिए तहे दिल से शुक्रिया
एडिट करने की कोशिश कर रही हूं लेकिन मुझ से हो नहीं पा रहा मोहतरम, मूल प्रति में सुधार लूंगी
वह मिस्रा कुछ इस तरह कहा है -
बातें मूसीक़ी-सी तेरी हैं मगर कल मेरे साथ
पटल पर मौजूद दीगर रचनाओं तक पहुंचना चाह कर भी मैं नहीं पहुंच पा रही हूं, धीरे-धीरे सीख कर वहां तक भी पहुंच आऊंगी और इंशा अल्लाह प्रतिक्रिया भी दूंगी ।
इस पटल पर पढ़ पाना मेरे लिए थोड़ा मुश्किल भी है ।
मुहतरमा अंजुमन `आरज़ू` जी आदाब, ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है, बधाई स्वीकार करें I
`वक़्त-ए-रुख़सत अश्क के गौहर लुटाएँगी बहुत `
इस मिसरे में `बहुत` की जगह "अगर" शब्द रखना उचित होगा I
`रेत पर लिख कर मिटाई है जो तुमने मेरे नाम
ज़ेहन में महफ़ूज़ ये सब चिट्ठियाँ रह जाएँगी`
इस शे`र के ऊला मिसरे में `है` को "हैं" और सानी में `ज़ेहन` को "ज़ह्न" कर लें I
`मौसिक़ी सी हैं तेरी बातें मगर कल मेरे साथ`
इस मिसरे में सहीह शब्द "मूसीक़ी " 222 है , मिसरा बदलने का प्रयास करें I
एक निवेदन ये है कि पटल पर मौजूद रचनाओं पर भी अपनी टिप्पणी दिया करें , ये आपकी अख़लाक़ी ज़िम्मेदारी है I
बाक़ी शुभ शुभ I
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