वज़्न -221 2121 1221 212
हस्ती में उसकी ख़ुद को मिलाने चली हूँ मैं
यानी कि अपने आप को पाने चली हूँ मैं
दरिया सिफ़त हूँ आब है मुझ में उसी का और
जानिब उसी की प्यास बुझाने चली हूँ मैं
रौशन चराग़ सा वो रहे मुझ में इसलिए
मिश्कात* अपने दिल को बनाने चली हूँ मैं
जिस ख़ाक से बनी हूँ फ़ना उस में ख़ुद को कर
मिट्टी वजूद अपना बचाने चली हूँ मैं
जब वो है मेरे गिर्द हवा-सा तो किस लिए
अपने क़रीब उस को बुलाने चली हूँ मैं
रहकर बदन की क़ैद में उसके विसाल को
अब रूह का परिंदा उड़ाने चली हूँ मैं
हर आरज़ू भुला के बस इक उसकी आरज़ू
इस 'आरज़ू' के नाज़ उठाने चली हूँ मैं
-©अंजुमन 'आरज़ू'
स्वरचित एवं अप्रकाशित
मिश्कात = वह बड़ा ताक़ या आला जिसमें चिराग़ रखा जाय
Comment
आदाब। बहुत बढ़िया दार्शनिक अभिव्यक्ति। हार्दिक बधाई आदरणीया अंजुमन आरज़ू जी।
आ. अंजुमन जी, अभिवादन। गजल का अच्छा प्रयास हुआ है। हार्दिक बधाई।
आदरणीय बृजेश कुमार ब्रज जी आदाब, ,ग़ज़ल तक पहुंचने और हौसला अफ़जाई करने के लिए तहे दिल से शुक्रिया"
बढ़िया ग़ज़ल कही आदरणीया बधाई...
मोहतरम नाथ सोलंकी जी, मोहतरमा Nilesh Shevgaonkar जी
मोहतरम मोहतरम अमीरुद्दीन अमीर जी
ग़ज़ल तक पहुंचने और हौसला अफजाई करने के लिए तहे दिल से शुक्रिया नवाज़िशें
मुहतरमा आरज़ू साहिबा आदाब, अच्छी ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद पेश करता हूँ। सादर।
आ. आरज़ू जी,
अच्छी ग़ज़ल हुई है.
ढेरों दाद स्वीकार करें
आद0 Anjuman Mansury 'Arzoo' जी सादर अभिवादन
बढ़िया ग़ज़ल कही है आपने। शेर दर शेर दाद कुबूल करें। सादर
उस्ताद मोहतरम समर कबीर साहब आदाब, ग़ज़ल तक तशरीफ़ लाने के लिए तहे दिल से शुक्रिया, मैं सुधार की कोशिश करूंगी ।
मुहतरमा अंजुमन `आरज़ू `` जी आदाब , ग़ज़ल का अच्छा प्रयास है , बधाई स्वीकार करेंI
`जिस ख़ाक से बनी हूँ फ़ना उस में ख़ुद को कर`
इस मिसरे का वाक्य विन्यास ठीक नहीं है , देखिएगा I
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