एक सफ़र था मेरा , जिसमें वो साथ थी
मैं अकेला था पर , वो बाप के साथ थी
एक नवेली किरन ,खुद में थी वो मगन
उसे देखकर देखो, झूमे धरती गगन
वहां सब खास थे ,वो अलग खास थी
उसके मुखड़े पे तो ,एक अलग आस थी |
कभी हँसती थी वो ,कभी रोतीं थी वो
नन्हे सपनो के मध्य ,कभी सोती थी वो
कोलाहल करे ,पापा को देखती रहे
पापा के गोद में, यूँ ही खेलती रहे
बीते बचपन की वो ,अलग एहसास थी
उसके मुखड़े पे तो ,एक अलग आस थी |
उसके तोतले शब्दों ने सब कुछ कहा
मार्मिक हो उठे ,सब जो बैठे वहां
उसकी विपदा को सुन ,सब रो दिये
इस बचपने में उसने ,अपनी माँ खो दिये
उसकी आँखों में एक अलग आभास थी
उसके मुखड़े पे तो ,एक अलग आस थी |
पापा की गोद को माँ का गोद समझा
खुद को बांसुरी और पापा को होंठ समझा
खुद के चंद लम्हों का मैंने समर्पण किया
उसकी खुशी पे सबकुछ अपना अर्पण किया
मैंने जाना की उसकी अलग प्यास थी
उसके मुखड़े पे तो ,एक अलग आस थी ||
"मौलिक व अप्रकाशित "
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