एक तौ मुहि मां भरे रहत,
दुई पुडि़या जेबेम धरे रहत,
औ सिगरेट धक-धक सुलगावत हैं।
ती खुद का स्मार्ट कहत हैं।।
कपड़न मइहां इतर का डारैं,
औ घण्टा भर मांग संवारैं,
फटफटिया से हैं घूमत।
औ लौट के रातिक देर से आवैं,
ती खुद का स्मार्ट कहत।।
मां-बाप से रोजै करैं बहाने,
फिर पेट भरैं और चद्दर ताने,
बस खटिया पर परे रहत।
रोज सबेरे उठैं देर से,
ती खुद का स्मार्ट कहत।।
ढंग विदेशी अपनावत हैं,
सांझ ढ़ले डिस्को जावत हैं,
वेस्टन के हैं गुण गावत।
भारत का कल्चर जानैं नाही,
ती खुद का स्मार्ट कहत।।
वक्त गुजारै कालिज आवैं,
दुसरेन पइहां रौब जमावैं,
कबहूं नाही पढ़त-लिखत।
औ इग्जामन मा रट्टा मारैं,
ती खुद का स्मार्ट कहत।।
कालिज के चुनावन मा उलझे हैं,
खड़े होएक तैयार खड़े हैं,
बातैं बड़ी-बड़ी हांकत।
औ देश-समाज की चिन्ता नाहीं,
ती खुद का स्मार्ट कहत।।
देख कै लरिकन की इ आदत,
मन ही मन हम घबराइत है।
यहि सपूत हैं भारत केरे,
सोंचि-सोंचि हम पछताइत है।।
अनिल कुमार चैधरी
मौलिक एवं अप्रकाशित
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