इस सवैये (वृत) के दो प्रारूप उपलब्ध हैं, एक सुखी सवैया कहलाता है तो दूसरा प्रारूप सुख सवैया. बहरहाल, पहले हम मूल विधान पर चर्चा करें, फिर इन दोनों प्रारूपों पर बातें करेंगे.
सुख सवैया हो या सुखी सवैया, दोनों दुर्मिल सवैया में हुए थोड़े परिवर्तन का परिणाम है.
हमें ज्ञात है कि दुर्मिल सवैया = सगण X 8
यदि दुर्मिल सवैया के विन्यास के अंत में दो लघु संयुक्त हों जायँ तो उक्त सवैया को सुखी सवैया कहते हैं.
अर्थात, सुखी सवैया = सगण X 8 + लघु + लघु
विन्यास - सगण सगण सगण सगण सगण सगण सगण सगण + लघु + लघु
उपरोक्त तथ्य की ताक़ीद नारायण दास ने हिन्दी छंदों पर अपनी विशद पुस्तक हिन्दी छांदोलक्षण में भी की है. उन्होंने इसका नामकरण मालती सवैया या कुन्दलता सवैया भी किया है.
उदाहरण के तौर पर नारायण दास ने भिखारीदास के दो पद उद्धृत किये हैं, जो इस छंद के अनुरूप हैं -
महिमा गुणवंत की दास बढ़ै बकसै जब रीझि के दाम जवाहिर
जिमि मालती सों अति नेह किये पर भौंर भयो रसिकाइ में ज़ाहिर
उपरोक्त पद्यांश के प्रथम पद का विन्यास -
महिमा (लघु लघु गुरु) / गुणवं (लघु लघु गुरु) / त की दा (लघु लघु गुरु) / स बढ़ै (लघु लघु गुरु) / बकसै (लघु लघु गुरु) /
<------------1-----------> <----------2-----------> <------------3-------------> <-------------4---------> <-----------5------------>
जब री (लघु लघु गुरु) / झि के दा (लघु लघु गुरु) / म जवा (लघु लघु गुरु) / हिर (लघु लघु)
<-----------6----------> <--------------7-------------> <-----------8------------> <------9-------->
हमें सवैया पाठ के तथ्यों से यह ज्ञात ही है कि विन्यास में बोल्ड किये गये शब्द गुरु होने के बावज़ूद लघु रूप में उच्चारित क्यों हो रहे हैं.
जैसा कि हम ऊपर चर्चा कर चुके हैं, इस सवैया का एक भेद और है. उस प्रारूप में अंतिम वर्ण गुरु होता है. यह सुख सवैया कहलाता है.
संभवतः ऐसा पद या चरण के अंत में आने वाले लघु को गुरु पढ़ने की शास्त्रीय छंद छूट के कारण हो सकता है, अथवा, सायास (जानबझ कर) ऐसा रूप भेद किया गया हो. कारण चाहे जो रहे हों. सुखी और सुख दोनों प्रारूप प्रचलित हैं.
अतः, सुख सवैया = सगण X 8 + लघु + गुरु
विन्यास - सगण सगण सगण सगण सगण सगण सगण सगण + लघु + गुरु
भारतेन्दु हरिश्चंद्र द्वारा रचित छंद उदाहराणार्थ प्रस्तुत है -
कहो कौन मिलाप की बात कहैं कही औरन की तो कछू न पतीजिये
चित चाहे जहाँ बसिये मिलिये न कभू जिय आवै सोई सोई कीजिये
अब प्रान चले चहैं तासौं कहैं हरिचंद की सो बिनती सुनि लीजिये
भरि नैन हमें इक बेरहु तो अपुनो मुख मोहन जोहन दीजिये
हम यहाँ उपरोक्त छंद के द्वितीय पद का विन्यास करते हैं -
चित चा (लघु लघु गुरु) / हे जहाँ (लघु लघु गुरु) / बसिये (लघु लघु गुरु) / मिलिये (लघु लघु गुरु) / न कभू (लघु लघु गुरु) /
<------------1-----------> <-----------2-----------> <------------3-----------> <-------------4-----------> <-----------5------------>
जिय आ (लघु लघु गुरु) / वै सोई (लघु लघु गुरु) / सोई की (लघु लघु गुरु) / जिये (लघु गुरु)
<------------6------------> <------------7----------> <------------8------------> <------9-------->
देखने योग्य है कि भारतेन्दु ने इस पद में सातवें और आठवें सगण को कि तरह से निभाया है. अवश्य ही यह कोई अनुकणीय उदाहरण प्रस्तुत नहीं करता. इसतरह के गुरु वर्णों को भले ही कितना ही प्रवाहपूर्वक क्यों न पढ़ा जाय, उनका ’लघु रूप उच्चारण’ किसी तरह से उचित पाठ का उदाहरण नहीं हो सकता. बहरहाल, हम सवैये के विधान पर ही चर्चा को केन्द्रित रखें.
ज्ञातव्य :
प्रस्तुत आलेख प्राप्त जानकारी और उपलब्ध साहित्य पर आधारित है.
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