आंगिक विकलता प्रकृति का ऐसा कष्टकारक अभिशाप है, जिसे व्यक्ति आजीवन भोगने के लिए विवश होता है | मूक, बधिर, नेत्रहीन, हाथ-पाँव से अपंग आदि विकलांगों के सामान्य जीवन के लिए राज्य और समाज द्वारा अनेक प्रयास किए जाते हैं, किन्तु लैंगिक-यौनिक विकलांगता से ग्रस्त व्यक्तियों के जीवन को सामान्य बनाने और उन्हें मुख्य धारा में लाने का कोई समुचित उपाय अभी तक हमारे देश में नहीं किया गया है | एक तो ऐसी विकलांगता प्रारम्भ में माता-पिता और परिवार द्वारा छिपाई जाती है तथा ऐसे विकलांग बच्चों को उनकी हाल पर छोड़ दिया जाता है; दूसरे तथ्य उजागर होने पर ऐसे बच्चों को किन्नरों की जमातों को परिवार द्वारा हमेशा के लिए सौंप दिए जाने का प्रचलन भारतीय समाज में हावी रहा है | आगे चलकर ऐसे बच्चे किन्नरों की जीवनगत विसंगतियों का हिस्सा बन जाते हैं और माता-पिता, परिवार तथा सामान्य समाज से सदैव के लिए दूर हो जाते हैं |
इधर 11 दिसंबर, 2013 को समलैंगिकता को दंडनीय अपराध बतानेवाला उच्चतम न्यायालय का फैसला आया नहीं कि पश्चिमी देशों और उनकी अतिवादी जीवन-शैली से प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से समर्थित भारतीय समलैंगिक संसद पर दण्ड संहिता की धारा 377 को निर्मूल करने का दबाव बनाने पर उतारू हो गए हैं | उनकी ओर से उच्चतम न्यायालय में दायर पुनर्विचार याचिका भी 28 जनवरी 2014 को ख़ारिज हो चुकी है | इस मुद्दे पर संसद की रहनुमाई की आख़िरी चौखट अब और प्रभावशाली हो गई है | वोट-बैंक की राजनीति का शिकार होने के कारण राजनेताओं से धारा 377 को बरकरार रखने की तनिक भी आशा रखना व्यर्थ है, जिसका भारतीय दण्ड-विधान में बने रहना वर्तमान मानवीय सांसर्गिक विषमताओं के कारण अत्यंत आवश्यक है | उक्त धारा के निर्मूल हो जाने से देश एक ऐसा सांस्कारिक सुरक्षा-विधान खो देगा, जिससे अनेक वैकल्पिक एवं अनर्गल शारीरिक संसर्ग, यौनिक विसंगितियों, घातक बीमारियों तथा लैंगिक-यौनिक सुख की जटिल अपसंस्कृति का समाज में बोलबाला हो जाने की प्रबल आशंका है |
तो फिर उपाय क्या है ? देश, समाज, किन्नरों, समलैंगिकों और भारतीय संस्कृति सब के पक्ष का संतुलन साधते हुए आखिर क्या किया जाना चाहिए ? समलैंगिकों में अपनी आंगिक अक्षमता, एकाकी जीवन, समाज से कट जाने तथा माता-पिता, परिवार और समाज के स्नेह-सम्मान से वंचित हो जाने का भारी दर्द होता है | उनके पेट पालने की समस्या भी कम विकट नहीं होती | इस प्रकार वंचित कष्टमय जीवन, बेरोज़गारी और लैंगिक-यौनिक विसंगति के त्रिकोण में उनके द्वारा आंगिक रूप से अक्षम अपने-जैसों के साथ मिलजुलकर जीवन-यापन की लालसा अस्वाभाविक नहीं है | किन्तु आंगिक रूप से अक्षम होते हुए उनके द्वारा अन्य रूप में, वैकल्पिक, अप्राकृतिक शारीरिक सम्बन्ध अनेक विसंगतियों और अपसंस्कृति को जन्म देता है | इसके समाधान के लिए हमें ऐसी वैयक्तिक जीवनियों का प्रासंगिक संग्रह तैयार करना चाहिए, जिससे उनके संजीवन आचार-विचार के आधार पर व्यावहारिक संहिता बनाकर प्रेरणात्मक तरीके से समलैंगिकों का जीवन वास्तविक रूप में सँवारा जा सके |
इस उपक्रम में, आइए एक विहंगम दृष्टि डालते हैं, शारीरिक रूप से अक्षम तो नहीं, किन्तु विवाहित जीवन से दूर एकाकी जीवन को देश और समाज को समर्पित करके अपनी जीवन-रेखा से जिजीविषा और जीवन-संघर्ष का नया यथार्थ रचनेवाले और इसी सामाजिकता से उपजे बानगी के तौर पर कुछ स्वनामधन्य व्यक्तित्वों की, जिनकी अमिट उपस्थिति समय की शिला पर अंकित है; जैसे कि सुमित्रानंदन पन्त, स्वामी विवेकानंद, डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, मदर टेरेसा, अटल बिहारी वाजपेयी आदि | ये सभी जीवट के धनी ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिन्होंने अपने जीवन की अनेक वंचनाओं को भारतीयता के महान संवाहक के रूप में सकारात्मक उपलब्धि और सुनाम सच्चरित्रता में तब्दील कर दिया | इनके जीवन-सार से यही ध्वनि आती है कि कोई भी प्रकृति प्रदत्त प्रतिकूलता और अभिशाप प्रकृति को लौटाया तो नहीं जा सकता, किन्तु देश और समाज के अनुकूल अपने श्रम, लगन तथा कृतित्व से वरदान में बदला जा सकता है |
कविवर सुनित्रानंदन पन्त प्रकृति सहचरी से संलाप, उससे छाया-प्रेम और उसी के प्रति शब्द-साधना के लिए जाने जाते हैं | अविवाहित जीवन पर बार-बार कुरेदे जाने पर प्रकृति-प्रेमी पन्त का उत्तर कुछ इस प्रकार सामने आता है ---
“छोड़ द्रुमों की मृदु छाया
तोड़ प्रकृति से भी माया
बाले, तेरे बाल-जाल में
कैसे उलझा दूँ लोचन ?”
अर्थात्, हे सुन्दरी, मैं वृक्षों के सुरम्य छतनार वातावरण को त्यागकर और प्रकृति के अपनत्व से अलग होकर ( उससे प्रेम-सम्बन्ध का विच्छेद करके ) तुम्हारी केश-राशि के सौन्दर्य के धोखे में अपनी आँखों को कैसे फँसा सकता हूँ ? ( ये आँखें तो प्रकृति की अच्छाभा के लिए हैं ) | और पन्त प्रकृति-सुन्दरी से आजीवन प्रेम करते रहे, अपने शब्दों में उसका अभिराम रूप-स्वरूप उतारते रहे, उससे निसर्ग, जीवन और दर्शन की बातें करते रहे; आजीवन कुमार रहकर प्रकृति के साथ लिया हुआ उसके प्रति एकनिष्ठ प्रेम का व्रत निभाते रहे | स्वामी विवेकानंद की माँ उन्हें गृहस्थ-जीवन के आकर्षणों की ओर प्रेरित कर-करके हार गईं | वे स्वयं अपनी जिज्ञासाओं के साथ सच्चे ज्ञान की खोज में वर्षों बेचैन रहे | अंतत: रामकृष्ण परमहंस के शिष्यत्व में उन्हें परम सत्य का आभास हुआ और महा प्रकाश की ओर उन्मुख हुए | और फिर उनके जीवन-लक्ष्य, साधना तथा कर्मक्रांत संन्यासी-जीवन की महायात्रा को कौन नहीं जानता ?
भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिन पर समस्त भारत-वासियों को अपार गर्व है | वे दाम्पत्य जीवन से दूर एकाकी जीवन की वंचना को वैज्ञानिक, राजनय और वैचारिक जीवन की महान उपलब्धि के रूप में बदल देने के एक अनोखे उदाहरण हैं | अपनी निजता को सर्वजनीन जीवन से दूर वे देखते ही नहीं | देश-दुनिया और उसके सुख–दुःख से हमेशा अपने-आप को जोड़े रखते हैं | एकाकी जीवन के साथ वे आजीवन कभी अकेले नहीं रहे | आखिर, उनके पास ऐसा क्या-कुछ है, जिससे वे पूरी दुनिया, पूरी मानवता को अपना बनाकर रखते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में एकाकी जीवन को अविरल संसार बनाते और उस संसार में डूबते-उतराते, ऊभ-चूभ होते उनके निजी विचार उन्हीं के शब्दों में कुछ इस प्रकार हैं ---
“I’m not a handsome guy
But I can give my
Hand to someone
Who needs help? ”
अर्थात्, मैं ( दिखने में ) सुन्दर-सा लड़का ( या आदमी ) नहीं हूँ, लेकिन किसी भी ज़रूरतमंद को मदद का अपना हाथ दे सकता हूँ ( उसके लिए मेरा हाथ हमेशा बढ़ा हुआ है ) | यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि कलाम साहब ने रंग-रूप, कद-काठी और उम्र के लिहाज से आकर्षक होने की अपेक्षा सहृदयता, मैत्री और सहायता-सद्भाव को अधिक महत्त्व दिया है | उन्होंने दैहिक सौन्दर्य और उसके आकर्षण को विस्फारित नेत्रों से न देखकर सामान्य दृष्टि से देखा है और मनुष्यों में परस्पर सहयोग और सम्प्रदान की भावना को मानवता का नियामक होने का संकेत किया है और हम यहाँ दैहिक आकर्षण-विकर्षण के फेर में पड़े समलैंगिकों की जीवन-विसंगतियों का समाधान ढूँढने की बात कर रहे हैं |
मदर टेरेसा ने किसी दैहिक संतान को जन्म नहीं दिया | पर अपने हृदय के विस्तार से समूची मानवता के लिए ममता और सहानुभूति की सलिला प्रवाहित करके संसार की माँ हो गईं | उनका पूरा जीवन दीन-हीन, पीड़ित, असहाय लोगों की सेवा-सुसूर्षा और उनके आँसू पोछने में बीत गया | इसी प्रकार भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी सार्थक एकल जीवन के ऐसे शलाका पुरुष के रूप में याद किए जाएँगे, जो किशोरवय से वृद्धावस्था तक सर्वजन-हितार्थ की साँसें लेते रहे और अविवाहित जीवन को चुना ही इसलिए कि अहिर्निश सब के लिए जीने में कोई बाधा न हो |
तो फिर एकाकीपन के महज़ भारी-भरकम बोझ को ढोते हुए विकृत शारीरिक सम्बन्ध की ज़िंदगी के अलावा समलैंगिकों की दुनिया में भी बहुत कुछ है और लगभग वह सब है, जिसकी बदौलत सुमित्रानंदन पन्त, स्वामी विवेकानंद, डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, मदर टेरेसा, अटल बिहारी वाजपेयी-जैसी हस्तियाँ देश-दुनिया में अपना छाप छोड़ती हैं | बशर्ते, सबसे पहले उनके द्वारा एकजुट होकर घिनौने, वैकल्पिक शारीरिक संबंधों को त्याग देने का संकल्प लिया जाना चाहिए | फिर, जहाँ तक पारिवारिक-सामाजिक घटकों और राज्य द्वारा उनके विकास और मान-सम्मान की स्थापना में पूरे मन से सहयोग की परम्परा न होने की बाधा है, तो आज की लोकतांत्रिक व्यवस्था में उस पर पुनर्विचार किए जाने और कारगर योजना बनाकर उसे सख्ती से लागू किए जाने की आवश्यकता है |
और अंतत: व्यूह-भेदक समाधान यह कि जैसे मूक, बधिर, नेत्रहीन, हाथ-पाँव से अपंग आदि विकलांगों के लिए विकलांगता का राजकीय प्रमाणपत्र चिकित्सा-विभाग द्वारा जारी किया जाता है, उसी प्रकार लैंगिक-यौनिक विकलांगता का पता चलते ही माता-पिता के माध्यम से अविलंब आवेदन किया जाना चाहिए और ऐसे विकलांगों को भी विकलांगता का प्रमाणपत्र प्रदान करने की व्यवस्था की जानी चाहिए | यह राज्य और समाज का कर्तव्य बनता है कि ऐसे विकलांगों की पहचान से लेकर समस्याओं के समाधान तक के समुचित उपाय किए जाएँ | इसके लिए उन्हें शिक्षा, प्रशिक्षण, व्यवसाय, नौकरी आदि क्षेत्रों में अपेक्षित सुविधाएँ देकर मुख्य सामाजिक धारा में शामिल करने में अब और देरी करना कतई ठीक नहीं | माता-पिता, परिवार, समाज और शासन द्वारा जैसे आज एड्स रोगियों के लिए मुहिम चलाई जा रही है, वैसे ही ऐसे विकलांग बच्चों के लिए भी सभी के द्वारा हृदयहीनता दूर की जानी चाहिए और उन्हें कभी भी अपने से अलग न होने देना चाहिए, बल्कि उन्हें पढ़ा-लिखाकर, अच्छी तरह शिक्षित-प्रशिक्षित करके विभिन्न कार्य-क्षेत्रों में स्थापित होने में भरपूर इच्छा-शक्ति से, तन-मन-धन से सहयोग किया जाना चाहिए | तभी भारतीय समाज सब का होगा और सब को साथ लेकर आगे बढ़ सकेगा | ( मौलिक व अप्रकाशित )
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--- संतलाल करुण
इस मुद्दे पर संसद के रहनुमाई का आख़िरी चौखट अब और प्रभावशाली हो गया है |" की जगह "इस मुद्दे पर संसद की रहनुमाई की आख़िरी चौखट अब और प्रभावशाली हो गई है
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आदरणीय
यद्यपि मैं इस बात का समर्थन करता हूँ की यौनिक विषमता वाले इंसानों को मुख्य-धारा में लाया जाना चाहिए परंतु मेरे विचार से ऐसे सभी लोगों को अपंग कहना शायद ठीक नहीं होगा |तथा अन्य प्रकार से संसर्ग-सुख प्राप्त करने की इनकी कोशिशो को सांस्कृतिक अपक्षय कहना कहाँ तक न्याय-सम्मत है ?मनुष्य होने के नाते जीवन के सभी सुखों को भोगने का अधिकार उन्हें भी होना चाहिए , मुख्यधारा में लाने का अर्थ केवल प्रमाणपत्र उपलब्ध करवाकर उन्हें छोटी-मोती नौकरी में रखने से नहीं होगा |तन भले ही साथ ना दे पर मन की भावना को कब तक कानूनी शिकंजे से रोका जाएगा ?जब बड़े-बड़े संत मन के आगे हार कर इस सुख को प्राप्त करते हुए मिलते हैं तो हम कितनी देर तक ऐसे लोगों को रोक पाएंगे ?
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