उत्तमो ब्रह्मसद्भावो
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वर्तमान युग में भगवान की पूजा करने के अनेक प्रकार प्रयुक्त किये जाते हैं अतः जन सामान्य के मन में यह प्रश्न सदैव बना रहता है कि यथार्थतः वे किस का अनुसरण करें और किसका त्याग करें क्योंकि सभी प्रकारों का पालन करना न केवल भ्रमित करता है वल्कि लक्ष्य तक पहुॅंचाने से भटका भी सकता है। इसलिये आध्यात्म जगत में वहुचर्चित कुछ शब्दावलियों पर अच्छी तरह चिंतन कर लेने के बाद ही जो सर्वोत्तम हो उसी का अनुसरण किया जाये तो अपेक्षतया शीघ्र सफलता मिलती है। "आध्यात्म चिंतन" के लिये प्रयुक्त किये जाने वाले महत्वपूर्ण पदों में से कुछ निम्नाॅंकित प्रकार से समझे जा सकते हैं और इनमें से भी "ब्रह्मसद्भाव" को ऋषियों ने सर्वोत्तम माना है। आशा है सभी मित्र इन्हें हृदयंगम कर आनन्दित होंगे।
तन्मात्रा-
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तत़् + मात्रा = तन्मात्रा । तत् अर्थात् वह। मात्रा अर्थात् न्यूनतम राशि । इसका संयुक्त अर्थ हुआ उस (अर्थात् परमपुरुष) की न्यूनतम राशि । सभी ज्ञानेद्रियाॅं, तन्मात्राओं के सहारे ही भौतिक जगत का ज्ञान प्राप्त कर पाती है। इन्हें शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध के नाम से जाना जाता है। आत्मसाक्षात्कारियों द्वारा गंध तन्मात्रा को उस परंपुरुष की सबसे स्थूल तरंगें माना जाता है।
पूजा अथवा पूजन-
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जब कोई व्यक्ति स्वार्थवश या विना स्वार्थ के अविभक्त मन से अपने आराध्य के प्रति अपना अत्यंन्त आदर प्रकट करता है जिसमें बाहरी तौर पर फूल, बेलपत्र, चंदन, गंगाजल, तुलसी, केला, चावल आदि अर्पण करता है या इन वस्तुओं का नहीं भी अर्पण करता है तो उसे पूजा या पूजन कहते हैं।
अर्चा या अर्चना-
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जब कोई व्यक्ति स्वार्थवश अपने आराध्य के प्रति अपना अत्यंन्त आदर प्रकट कर बाहरी तौर पर फूल, बेलपत्र, चंदन, गंगाजल, तुलसी, केला, चावल आदि अर्पण करता है तो इसे अर्चा या अर्चना कहते हैं।
प्रार्थना-
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जब कोई व्यक्ति स्वार्थवश या विना स्वार्थ के अविभक्त मन से अपने आराध्य के प्रति गहरे मन से बिना किसी बाहरी सामग्री के साथ अत्यंन्त आदर प्रकट करता है तो उसे प्रार्थना कहते हैं।
विधिपूजन-
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ऊपर वर्णित पूजा की विधियाॅं धार्मिक कर्मकांडियों द्वारा अनेक भागों में कराई जाती हैं जैसे, अंगन्यास, करन्यास, आचमन, शिखाबंधन, आवाहन, माल्यदान, तिलकधारण, और विसर्जन। इस प्रक्रिया सहित पूजन करने को विधिपूजन कहते हैं।
उपासना -
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उप का अर्थ है समीप या निकट, और आसना का अर्थ है वैठना। इस प्रकार उपासना का अर्थ हुआ निकट वैठना। पर किसके निकट? अपने आराध्य के निकट वैठने के कार्य को कहेंगे उपासना। इस कार्य को दार्शनिक भाषा में ईश्वरप्रणिधान भी कहते हैं।
ईश्वरप्रणिधान-
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वह यौगिक क्रिया जिसमें साधक अपनी मूल आवृत्ति/तरंग दैर्घ्य को परमसत्ता की मूल आवृत्ति/ तरंग दैर्घ्य के साथ समानातर लाने का अभ्यास करता है ईश्वरप्रणिधान कहलाती है।
आराधना-
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राधाभाव बहुत ही उच्च स्तर का भक्तिभाव है यह किसी महिला का नाम नहीं है जिसे पुकार कर बुलाया जा सके। यौगिक विधियों के सतत अभ्यास और ईश्वर प्रणिधान के लगातार प्रयास से यह भाव अपने आप प्रकट होता है। स्पष्ट है कि राधा भाव को जाग्रत करने के लिये किये गये उपायों को आराधना कहते हैं। सच्चाई यह है कि केवल परम पुरुष ही वास्तविक और निर्पेक्ष सत्ता हैं और ज्योंही जीव उनकी ओर बढ़ने का प्रयास करते हैं तो वे उन्नत होने लगते हैं। उन्नयन के बहुत सूक्ष्म स्तर पर पहुंचने पर उनका मन कुशाग्र होकर उन्हीं में मिलना चाहता है, यही कुशाग्रतापूर्ण मिलने का भाव राधा भाव कहलाता हैं जिसमें भक्त सोचने लगता है कि प्रभु से मिले बिना उसके अस्तित्व का कोई औचित्य नहीं है । जब इस अवस्था में पहुंचने वाले साधक अपने आराध्य से एक सेकेंड/एक क्षण भी दूर नहीं रहना चाहते तब कहा जाता है कि उसने राधा भाव प्राप्त कर लिया है। यह भक्त अपने आराध्य में मानसिक रूपसे मिल जाने के अलावा कोई विचार नहीं लाते इसे ही आराधना कहते हैं। ये सर्वोत्तम प्रकार के भक्तगण ही ‘राधा‘ कहलाते हैं चाहे पुरुष हों या महिला या कोई और।
ब्रह्मसद्भाव-
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वह विशेष प्रकार की पूजा जो निस्वार्थ भाव से बिना किसी वाह्य सामग्री के साथ अपने आराध्य के ध्यान में की जाती है उसे ब्रह्म चिंतन या ब्रह्मसद्भाव कहते हैं। इसके स्थायी हो जाने पर साधक की मूल आवृत्ति और परमपुरुष की मूल आवृत्ति में अनुनाद (resonance ) होने लगता है और वह परमानन्द का अनुभव करता है, ऋषियों ने इस आनन्द को विभिन्न प्रकार की समाधियों के नाम से समझाया है। वेदान्त में पूजा का सर्वोत्तम प्रकार यही है।
धुवास्मृति-
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परमात्मा, समग्र ब्रह्माॅंड का कर्ता और समग्र ब्रह्माॅड उसका कर्म है। इसलिये उन्हें अपना कर्म नहीं बनाया जा सकता। तब क्या किया जाय? इसके लिये यह विचार सदा करना होगा कि वह हमें लगातार देख रहे हैं। बुद्धिमान लोग परमात्मा को अपना विषय नहीं बनाते बल्कि अपने को उनका विषय मानते हैं और उन्हें हमेशा साक्ष्य देने वाला मानकर सोचते हैं कि ‘‘परमात्मा मेरे विषय नहीं हैं मैं उनका विषय हूँ ।‘‘ जब यह भावना किसी के मन में हमेशा के लिये द्रढ़ स्थान ले लेती है कि वे हमेशा उन्हें देख रहे हैं तो इसे धुवास्मृति कहते हैं। इसी का नाम आध्यात्मिक ज्ञान है इस अवस्था में ही कोई व्यक्ति सच्चा ज्ञान पा सकता है। आध्यात्मिक ज्ञान को मानसिक और भौतिक क्षेत्र में बदला जा सकता है। यदि कोई इस प्रकार करना चाहता है तो वह संसार का बहुत भला करेगा। इसी से प्रगति होती है। सबसे विद्वान व्यक्ति वह है जो समझता है कि वह कुछ नहीं जानता।
प्रमा-
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भौतिक मानसिक और आध्यात्मिक तीनों क्षेत्रों में सुसंतुलन होने की स्थिति 'प्रमा' कहलाती है। भौतिक क्षेत्र में की गई प्रगति प्रमासंवृद्धि, मानसिक क्षेत्र मे प्रगति प्रमारिद्धि और आध्यात्मिक क्षेत्र में हुई प्रगति प्रमासिद्धि कहलाती है। वास्तव में ब्रह्माण्ड का प्रत्येक अस्तित्व, आन्तरिक सूक्ष्म बलों और वाह्य गुरुत्व के प्रभाव में रहता है। अतः प्रमा की स्थिति में बलसाम्य (equilibrium) और भारसाम्य (equipoise) होने पर ही वह सुसंतुलित रह सकेगा। गंभीरता से चिंतन करने पर ज्ञात होगा कि इस प्रमा को प्राप्त करने के लिये ही विश्व के विभिन्न दर्शनों में विभिन्न नामों और प्रकारों की पद्धतियाॅं प्रचलित हैं।
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