राक्षसी विद्या
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प्राचीन भारत में वैद्यक शास्त्र उन्नत अवस्था में था, इसमें मृत देह को लेकर परीक्षण करने की छात्रोपयोगी प्रायोगिक विधियों की जानकारी दी गयी है। एनाटॉमी और फिजिओलॉजी का वर्णन वैद्यक ग्रंथों में भरा पड़ा है। शरीर की वाह्य संरचना, पाचन क्रिया,रक्त संचार, अस्थिसंस्थान आदि का परिचय, बिना शल्य क्रिया जाने कैसे हो सकता है ? अतः स्पष्ट है कि उन दिनों शल्य चिकित्सा उन्नत अवस्था में थी। यह विद्या भारत के मूलनिवासियों के पास ही थी जिन्हें आर्य लोग, अनार्य या राक्षस कहते थे और शव परीक्षण करने के कारण उन्हें अस्पृश्य मानते थे। आर्यों के पास आयुर्वेद था जिसमें शल्यचिकित्सा का कहीं भी उल्लेख नहीं है।
भारत का वैद्यक शास्त्र और आर्यों का आयुर्वेद कृष्ण के काल तक परस्पर मिल कर एक हो गए थे परन्तु आर्यों द्वारा अनार्यों को हेय दृष्टि से देखा जाना जारी था और प्रायः राक्षस या म्लेच्छ कहा जाता था। महाभारत काल में कृष्ण के फुफेरे बड़े भाई जरासंध का जन्म सिजेरियन अर्थात शल्यक्रिया के उपरांत ही हुआ था जिसे ‘जरा‘ नाम की महिला डाक्टर ने की थी। इसीलिए वह जरासंध ( अर्थात जिसे ‘जरा‘ राक्षसी के द्वारा शल्य क्रिया से सिल कर जन्म दिया गया) कहलाये। जरा को राक्षस कुल की होने के कारण जरा राक्षसी कहा गया है परन्तु जरासंध इस कुल को आदर देते थे और राक्षसी विद्या में पारंगत हुए। राक्षसी विद्या का अर्थ है सम्मोहन या हिप्नोटिज्म , इस विद्या में पारंगत अन्य महिला थीं हिडिम्बा (भीम की पत्नी)। इस विद्या का जानकार उन्नत मन, अनुन्नत मन पर अपना प्रभाव डालकर अपने आधीन कर सकता है।
विशूचिका (हैजा) रोग के उपचार के लिए सुई लगाने की विधि का ज्ञान इसी कुल की अन्य महिला चिकित्सक ‘कर्करि‘ को था। आर्य इन लोगों को हेय मानकर तिरस्कार करते थे। विष चिकित्सा भी भारत में ही विकसित हुई जिससे भीम को, दुर्योधन के द्वारा विष दिए जाने के बाद भी बचाया जा सका था। इस प्रकार की अनेक विद्याएँ भारत में बहुत पहले विकसित हो चुकीं थीं परन्तु प्रोत्साहन के आभाव में वे जानकार के साथ ही विलुप्त होती गईं। वौद्ध काल में तो शवच्छेद ( डिसेक्शन) को बहुत ही हीन और अस्पृश्य माना जाने लगा था अतः उन्नत शल्य चिकित्सा विलुप्त हो गई। आज हम पाश्चात्य देशों से उन्हें जान पाते हैं और उन्हें ही इनकी खोज का श्रेय देते हैं।
(मौलिक और अप्रकाशित )
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