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आज मैं सोचता हूँ,

आज मैं सोचता हूँ,
आज मैं सोचता हूँ की वो दिन फिर वापस आ जाए,
फिर वेसे ही मौज मनाए,
तितली के पिछे हम जाए,
फूल के महको मे खोजाये,

तब तो हम थे धूम मचाते,
समय बिताया हसते गाते,
सखाओ के संग बात बनाते,
समझ ना पाया दिन केसे जाते,

ये केसा दिन आया देखो,
खुद भि समझ ना पाया देखो,
कहा है जाना क्या करना है,
अब तक समझ ना पाया देखो,
जीवन के इस रंग मंच पर,
अपना पात्र निभाया देखो,

मन चंचल को माना लिया है,
उसको सब कुछ बता दिया है,
संभव ना है पिछे जाना,
सोर्य है आगे बढ़ते जाना,
बीते कल मे क्या रखा है,
आने वाला ही सच्चा है,
जंग अभी बहुत बाकी है,
पिछ्ला तो यादे काफ़ी है,
पिछला तो यादे काफ़ी है.

पंकज

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Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on August 12, 2010 at 12:12pm
तब तो हम थे धूम मचाते,
समय बिताया हसते गाते,
सखाओ के संग बात बनाते,
समझ ना पाया दिन केसे जाते,

अच्छी रचना सुंदर भाव, आप सीधे बच्चपन के दिनों मे पहुचा दिये , धन्यवाद,
Comment by Admin on August 12, 2010 at 9:28am
आदरणीय पंकज झा जी,
सादर प्रणाम,
सर्वप्रथम मैं आप की प्रथम रचना का स्वागत ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार के मंच पर ह्रदय से करता हूँ ,बहुत ही खुबसूरत रचना है, किसी ने सही ही कहा है कि बच्चपन हर गम से बेगाना होता है , वाकई बच्चपन के दिन जीवन मे दुबारा नहीं मिल सकता, अच्छी रचना है , आगे भी आप की रचनाओं और अन्य रचनाओं पर आपके विचार का सिद्दत से इन्तजार रहेगा ,

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