हिंदी रंगमंच की शुरुआत दो तरह से हुई, एक पारंपरिक तरीके से और दूसरा अंग्रेजो की नक़ल से पारंपरिक तरीके से उगे रंगमंच को लोकमंच का नाम मिला और दुसरे को आजकल की भाषा में रंगमंच बोलते है |
अंग्रेजो को गर्मी में भी भारत में रखने के लिए अंग्रेजी रंगमंच को भारत बुलाया जाता था इसी के जवाब में भारतीयता से लोटपोट पारसी थियेटर का जनम हुआ जो धीरे धीरे अपना स्वरुप बदलता हुआ आज का रंगमंच बना | ज्यादा इतिहास में जाये तो आधुनिक रंगमंच का जनक इब्राहीम अलका जी को माना जा सकता है | जवाहर लाल जी इनसे बहुत ही प्रभावित थे और आज़ादी के बाद जिस रंगमंच की कल्पना की गई वो करीब करीब अलका जी की कल्पना है |
अलका जी का बहुत ही योगदान है रंगमंच के लिए, उनका आदर किया जाना चाहिए और होता भी है पर गंभीरता से सोचा जाये तो उनसे ज्यादा हानि भी भारतीय रंगमंच का किसी ने नहीं किया, उन्होंने एक से एक बड़े कलाकार रंगमंच को दिए, इसमें कोई दो राय नहीं है पर रंगमंच को.ख़ास कर हिंदी रंगमंच को, सत्यानाश कर दिया | इसमें उनकी कोई गलती भी नहीं है, वो जो जानते थे वो बखूबी करते रहे और भारतीय रंगमंच नाश होता रहा | उन्होंने एक खुबसूरत रंगमंच की परिकल्पना की जो पश्चिम के रंगमंच से मुकाबला कर सके और एक अच्छे अभिनेताओ की फौज भी बना सके और इसमें वो सफल भी रहे उनकी सफलता ही हिंदी रंगमंच की मौत साबित हो रही है हिंदी रंगमंच ने ऐसा रुख पलता की आज तक किकिया रहा है |
Comment
यह सिर्फ शुरुआत है मूल प्रश्न पर आ जाऊंगा आपके विचार के लिए धन्यवाद
आदरणीय सीताराम सिंह जी, सर्व प्रथम ओ बी ओ के मंच पर आपके प्रथम पोस्ट का स्वागत करते है, हिंदी रंगमंच पर यह बहुत ही बढ़िया आलेख आपने दिया है, मुझे लगता है की इस आलेख को थोडा और विस्तार देना चाहिए, बहुत सारे अनसुलझे प्रश्न छुट जा रहे है जैसे अलका जी ने कैसे रंगमच हेतु योगदान दिया और किस तरह उन्होंने बर्बाद किया, विरोधाभास में उलझा पाठक वर्ग निश्चित canfuse होगा, कोई हो या ना हो मैं तो हूँ |
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