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बिरहा अग्नि

सुंदर छटा बिखरी उपवन में
खुशबु भरी मदमस्त पवन में
अजब सोच है मेरे मन में
सजन संग आज मिलन होगा
बलम संग आज मिलन होगा
---
मैं चातक हूँ स्वाति साजन ,
मैं मयूर सावन है साजन ,'
दीप हो तुम तो स्वाति मैं हूँ
जो तुम सीप तो मोती मैं हूँ ,
हूँ मैं चकोर तेरी मेरे चंदा
क्यों चकोर से दूर है चंदा
वन उपवन सब झूम रहा है ,
मस्त पवन भी घूम रहा है
जाने क्यों मेरे नयनों को
दर्द जिगर का चूम रहा है .
जाने क्यों युगों से चातक
स्वाति खातिर घूम रहा है .
------
सावन आया अबकी साजन
मन मयूर पर न झूमा
-----
चातक को बिन स्वाति कुछ न सुहाए
जैसे.
मनमीत बिना मुझको भी कुछ न भाए
वैसे .
-----
जाने कब उन का दरस होगा
जाने वो कौन दिवस होगा .
दरस करन कि खातिर साजन
खुले है मरकर भी ये नयन .
---
इंतज़ार इतना कौन करे गा
बिरहा की अग्नि में कौन जले गा
---
दीप जीर वी
९८१५५२४६००



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Comment by V.K. Diksit on October 14, 2010 at 10:43pm
पत्थरों के शहर में खोगयी वो गुलबदन,
क्या कभी फिर दुबारा क्या कभी होगा मिलन.

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