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कैसे बचेगी पत्रकारिता की मान-मर्यादा ?

राष्ट्रीय और क्षेत्रीय चैनलों में प्रतिस्पर्धा लगातार बढ़ती जा रही है। ऐसे में पत्रकारिता की मान-मर्यादा कैसे बचेगी, यह किसी को तो सोचना होगा। तमाम दुनिया को आईना दिखाने वाले और खुद को पाक साफ होने का दावा करने वाले चैनल या अखबार क्या वास्तव में वैसे ही हैं, जैसा वे खुद को पेश करते हैं ? पीत पत्रकारिता लगातार हावी होती जा रही है। आए दिन खबरें सुनने को मिल रही हैं कि फलां पत्रकार ब्लेकमेलिंग करते धरा गया, फलां रिपोर्टर महिला शोषण के आरोप में जेल गया, फलां पत्रकार को लोगों ने पीटा। खबरों के साथ खेल करने वाले बढ़ते ही जा रहे हैं और जिस पत्रकारिता को एक महान उद्देश्य मानकर लोग इससे जुड़ने में फक्र महसूस करते थे, वही अब शर्मसार होने लगी है। जिन लोगों को पत्रकारिता की एबीसीडी भी मालूम नहीं, ऐसे लोग बड़ी-बड़ी बातें करके एक प्रेस कार्ड जुटाकर या खरीदकर उसके दम पर खुद को बहुत बड़ा और पहुंचा हुआ पत्रकार बताने से बाज नहीं आते, इसका खामियाजा वे लोग भुगत रहे हैं जो वास्तव में पत्रकारिता को मिशन समझकर इस सेवा में आए। देष के महान संत-कवि कबीर के दोहे कि बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय, जो दिल खोजां आपना, मुझसे बुरा न कोय, को भूलकर चैनल देश के नेताओं, अफसरों और कई अन्य लोगों के भ्रष्टाचार उजागर करने के लिए तिकड़म करते दिखते हैं। वहीं सत्ताधारियों और नेताओं की चापलूसी भी कई पत्रकारों के रगों में समाने लगी है। दारू पीकर, मुर्गा खाकर, पैसे लेकर खबरें छापना और दिखाना अब पुरानी बात हो चुकी। लेकिन उसका परिणाम क्या मिला यह आजतक गौर नहीं किया जा रहा है, प्रिंट मीडिया फिर भी कुछ हद तक नियमों का पालन करता दिखता है, पर इलेक्ट्रानिक मीडिया ने तो सारे नियम-कायदों को ताक पर धर दिया लगता है। छत्तीसगढ़ में चल रहे क्षेत्रीय चैनलों को देखें तो खुद को आगे दिखाने की होड़ में हर खबर एक्सक्लूसिव बता दी जाती है, लोगो, आईडी कितने भी लगे हों, खबर चाहे अन्य चैनलों पर भी चल रही हो, विजुअल चाहे कहीं से भी कैसे भी हासिल किए जाएं, लेकिन कुछ चैनलों के लिए हर खबर एक्सक्लूसिव है ! क्यों यह होड़ मची है, क्यों खुद को विष्वसनीय बताने की आपाधापी है, क्यों हल्ला मचाया जाता है कि हमारी खबर का असर हुआ है, क्यों यह बताया जाता है कि हम ही सबसे ज्यादा जनता के षुभचिंतक हैं ? एक चैनल पर पिछले दिनों देखा कि कड़वे प्रवचन बोलने वाले क्रांतिकारी मुनि तरूण सागर जी उस चैनल के बारे में मीठे वचन बोल रहे थे। आखिर क्यों चैनलों को जरूरत पड़ रही है खुद को विष्वसनीय बताने के लिए किन्हीं शख्सियतों की। क्योंकि आम जनता का विश्वास अब दारूबाज, वसूलीबाज, नेताओं के चारण-भाट बनते जा रहे पत्रकारों की वजह से पत्रकारिता पर से घटने लगा है। मैं खुद एक चैनल में स्ट्रिंगर हूं, लिहाजा खबर बनाने के लिए कई गांवों में जाना ही पड़ता है, कुछ जगहों पर तो लोगों की बातें सुनकर लगता है कि चैनलों की विश्वसनीयता बढ़ रही है, लेकिन अधिकतर जगहों पर यही ताने सुनने पड़ते हैं कि भैया सामने वाली पार्टी से सेटिंग मत कर लेना। अफसर से पैसे खाकर खबर मत रोक देना। भैया चैनल में खबर आएगी भी या नहीं ? हमारी बनाई खबरें चैनल पर नहीं चल पाएं, इसके और भी कई कारण हो सकते हैं, पर आम जनता सीधे ही अनुमान लगाने लगती है कि संबंधित पत्रकार या स्ट्रिंगर ने सांठगांठ करके खबर भेजी ही नहीं। ऐसी बातें सुनकर मन दुखी होना स्वाभाविक है कि जब अपने पक्ष में कोई नहीं कहता तो बुरा लगता है, लेकिन क्या यह सिर्फ हमारी आलोचना हो रही है या फिर उस चैनल पर भी अविश्वास जताया जा रहा है, जिसके हम कर्मचारी हैं।
एक विदेशी मषहूर टीवी एंकर हैं ओपेरा विनफ्रे, जिनके बारे में थोड़ी बहुत जानकारी मुझे है, विनफ्रे टीवी चैनल पर किसी प्रोडक्ट या पुस्तक या फिर किसी व्यक्ति के बारे में बताती है, तो उस पर अधिकतर दर्शकों को विष्वास होता है और संबंधित चीजें लोकप्रिय भी हो जाती हैं। कई बरस पहले देशबंधु में वरिष्ठ पत्रकार और संपादक( वर्तमान में छत्तीसगढ़ के संपादक) रहे सुनील कुमार जी ने अपने स्तंभ आजकल में लिखा था कोई ओपेरा विनफ्रे है यहां ? वाकई वर्तमान में ओपेरा विनफ्रे जैसी शख्सियतों की जरूरत यहां के चैनलों को है, जिससे दर्षकों के बीच विश्वसनीयता का माहौल बन सके। वहीं देशबंधु में ही वरिष्ठ पत्रकार प्रभाकर चैबे जी ने दो महीने पहले लिखा था कि चैनलों का संपादकीय कहां है ? वास्तव में चैनलों में संपादक का कोई रोल दिखता नहीं, चैनल अगर अपने किसी संपादक के विचारों को, देष की वर्तमान स्थितियों को या फिर किसी जरूरी मुद्दे को, आम जनता की आवाज को बिना छेड़छाड़ किए पेश करे तो दर्षकों के बीच विष्वसनीयता का माहौल भी बनेगा और उस चैनल का वैचारिक स्तर भी पता लगेगा कि वह अपनी कही बातों पर कितना खरा उतरता है। आज के दौर मैं तो यही मानता हूं कि वक्त के साथ बदलाव जरूरी है लेकिन पत्रकारों के कदाचरण को बढ़ावा देने से सिर्फ और सिर्फ भविष्य में नुकसान ही होना है। चैनल के जवाबदार ओहदेदार अधिकारी अगर थोड़ा भी अपने पत्रकारों और टीवी रिपोर्टरों को सदाचार सिखाएं, और खुद भी उसका पालन करें तो किसी बाबा, विनफ्रे और शख्सियतों की जरूरत ही नहीं पड़ेगी कि उनका चैनल अच्छा है, जनता का हितचिंतक है, भ्रष्टाचार का विरोधी है। वर्तमान की पत्रकारिता और माहौल को देखते हुए यह माना जा सकता है कि कोई पत्रकार, नाना पाटेकर की तरह क्रांतिवीर तो नहीं बन सकता, लेकिन जिसके नाम पर पत्रकार सम्मान पाते हैं, जिसके दम पर तमाम सुविधाएं जुटाते हैं, उस पत्रकारिता का सम्मान तो कायम रखें, बनियागिरी यानि व्यापार करने वालों के बीच एक प्रचलित कहावत है कि नियत अच्छी होगी तो धंधा अच्छा होगा। लोग जब इसे धंधा मानने ही लग गए हैं तो पत्रकारों को अपने पेशे से ईमानदारी दिखानी होगी, नियत साफ करनी होगी। वरना पत्रकारिता की मान-मर्यादा को भविष्य में खतरा ही खतरा है। मेरी बात फिलहाल खत्म इस माफी के साथ, कि जो भी पत्रकार मिशन मानकर इस पेशे को अपनाए हुए हैं, यह बातें उनपर लागू नहीं होती।

रतन जैसवानी
जांजगीर-चांपा
छत्तीसगढ़
मो. - 098936-23883

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