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उलझते सुलझते बातें जिंदगी के

ये रात शर्त लगाये बैठे है नजरे बोझिल करने की..
और हम ख्वाब सजाने की बगावत कर बैठे है ...

(वक्त के खिलाफ ये कैसी कोशिश ! ! )

यूँ भागती कोलाहल जिंदगी मे ..
कहाँ थी कोई ख़ामोशी..
हम छुपते रहे , पर वो वजह थी..
आखिर मुझे ढूंड ही लिया उसने ! !

(ये कैसी ख़ामोशी. थी ! ! )

राह बंदिशे से निकल कर चलने दे एक कारवां ...
वक्त की हाथो न रुक जाये एक खिलता हुआ जहाँ ..

(रोको न इसे खिलने से ! ! )

शिकन न दिखे इन चेहरों मे कभी ...
चाहे सजदे मे झुके रहे हम यूँ ही तेरे दर पर ..

(कोई गम के निशा न हो ! ! )

अनजाने में अपनापन दिख गया ..
आपकी सादगी में ये नजर झुक गया ..
जब भी कभी हुआ परेशां , आपका संग दिख गया ...

(कैसी उमीदे है ये ? )

रचना : सुजीत कुमार लक्की

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