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पत्र: माँ के नाम...!!

माँ... ... ...

आज खुश हूँ बहुत...

शायद इसलिए... कुछ सूझ नहीं रहा...

लिखनें को... सिर्फ इस शब्द 'माँ' के आगे...

शायद समझ आया कि क्यों तुम निहारती थी...

एकटक, कभी... जब मैं पुकारती थी... 'माँ'.. कह के तुझे...

आज समझ आई... दादी का हर पल मेरी जगह...

अपना पोता देखनें की चाहत की वजह...

आज समझ आया क्यों रोती थी तुम...

मेरे ब्याह का सोच के... ... ...

शायद सोचती होगी... अपनी अकेली ज़िन्दगी...

जो शायद बेटे के होने पर ना होती...

पर, माँ... ... ... मुझे क्यों नहीं एहसास होता...

मुझे क्यों नहीं चाह होती... बेटे की... ... ...???

आज... प्रकृति ने नवाजा है मुझे भी...

अपनें अनोखे चमत्कार से...

फूटा है एक अंकुर... मुझमें भी...

अब बनेगा एक पेड़... जिसे सीचूंगी मैं भी...

फिर उसके फल का इंतज़ार...

तेरी तरह... मैं भी सुनती हूँ...

अपनीं सासू माँ को... पोते की छह में मजबूर...
पर, तय किया है... मैंने भी...

जन्मूंगी एक बीज... जो किसी के आँगन का वृक्ष बनें...

ना जन्मूंगी कोई फल... जो एक वक़्त के बाद सड़ जाये...

महकाएं हैं 'दो अंगान' मैंने...

और महकाएगी...

मेरी "बेटी" भी... ... ...!!

::::::::जूली मुलानी::::::::

::::::::Julie Mulani::::::::

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Comment

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Comment by Julie on December 17, 2010 at 10:12pm
बागी जी आपके शब्द भी बिलकुल सही हैं... शुक्रिया मेरी रचना को सरहाने का...!!

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 17, 2010 at 10:50am

बेहतरीन जुली, आप की कविता सारगर्भित होती है .....

 

माँ शब्द ही भरा पूरा शब्दकोष है, अगर कोई माँ को समझ ले तो आगे समझने के लिये कुछ रह ही नहीं जाता |जुली मैं तो बस यही कहना चाहूँगा कि.............

 

बेटा और बेटी मे,

अंतर कहा होता है,

बीज हो या फल,

ना मिले संरक्षण तो,

दोनों सड़ जाता है,

बिना फल के बीज कहा से आयेगा,

ना रहे बीज तो,

फल भी ना उपज पायेगा,

बेटा और बेटी है,

एक दुसरे के पूरक पल्वित,

बिना दोनों के,

यह संसार है अकल्पित,

 

कृपया ध्यान दे...

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