रूपम के हाथों में मेहंदी लग रही थी. दामिनी चाहती थी कि इसके लिए पार्लर से मेहंदी डिजाइनर बुलवा लें, किंतु रूपम ने साफ मना कर दिया था. उसकी जिद्द के आगे दामिनी को झुकना ही पड़ा. मेहंदी, कपड़े, मेक अप इत्यादि के मामलों में रूपम ने अपनी सहेलियों को ज्यादा तरजीह दी थी. अपने वादों के मुताबिक उसकी सहेलियां शादी के चार दिन पहले ही रूपम के घर पहुंच चुकी थी. अपने लहंगे और अन्य कपड़ों की खरीदारी वह नीलिमा के मुताबिक कर रही थी. नीलिमा उसकी बेस्ट फ्रेंड थी जो मुम्बई में रहकर फैशन डिजाइनिंग का कोर्स कर रही थी. मेहंदी और मेक अप की सारी जिम्मेदारी तृषा पर थी, जो ब्युटीशियन का कोर्स दिल्ली से करके वापस आई थी और धनबाद में ही अपना ब्युटी पार्लर खोलने की तैयारी में थी. रूपम का भी सोचना सही था, क्योंकि आज के इस व्यस्त जीवन में दोस्तों से मिलना-जुलना बहुत कम हो गया है. यह आज का कड़वा सच है. लोगों को अपनों के साथ बिताने के पल भी कम पड़ने लगे हैं तो ऐसी हालात में दोस्तों के लिए समय निकालना कितना मुश्किल होता है. शुक्र है फेसबुक, ट्वीटर, वाट्सअप जैसे आज के सोशल मिडिया का जिसके जरिए कम से कम हम दोस्तों के सम्पर्क में तो रह पाते हैं. भले ही उनसे मिलने का सपना सपना बनकर ही रह जाता है. शादी-विवाह, पर्व-त्योहार जैसे अवसरों पर ही तो दोस्तों मिलना-जुलना हो पाता है. इसीलिए रूपम ने भी इस मौका का भरपूर लाभ उठाने की कोशिश की थी. इसी बहाने उसे अपनी सहेलियों के साथ कुछ वक्त बिताने का तो मौका मिल गया था.
रूपम दामिनी की बड़ी बेटी थी. आज उसकी मेहंदी की रस्म थी. दो दिन बाद वह अपने अँगना की इस बुलबुल को चाहकर भी उड़ जाने से रोक नहीं पाएगी. रूपम एमबीए करके मार्केटिंग मेनेजर के रूप में एक कम्पनी में कार्यरत थी. अभिनव को अपना जीवन साथी उसने खुद चुना था. वह भी उसी कम्पनी में कार्यरत था जहां रूपम थी. दामिनी जब अभिनव और उसके घरवालों से मिला था तो वह समझ गई कि रूपम का चयन सही है. उसने तुरंत अपनी रजामंदी दे दी.
रूपम को उसकी सहेलिया मेहंदी लगा रही थी. साथ ही कभी खत्म ना होनेवाली गॉसिप में वे लोग मस्त थी. वहां सभी लड़कियां बिंदास थी. मेहंदी को अगर छोड़ दी जाए तो यह तय करना मुश्किल था कि आखिर शादी किसकी है. उनकी भाव-भंगिमाओं और मानसिक दशा में कोई फ़र्क नहीं था. रूपम ने अपनी लाईफ की प्लानिंग खुद की थी. उसे ना किसी से शिकवा था और ना ही शिकायत. अपने हिस्से की जिन्दगी अपने मुताबिक जीने की उसे पूरी छूट थी. दामिनी की ओर से उसे पूरा सपोर्ट था. वह जीते जी अपनी बेटियों को अपना इतिहास दोहराने नहीं देगी. यही वजह था कि शादी के अवसर पर भी रूपम के चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी. पूरे आत्मविश्वास के साथ वह फ्युचर लाईफ के लिए तैयार थी.
दामिनी को याद हो आती है अपने जीवन के वो खट्टे-मीठे पल.
उसकी जब शादी हुई थी तब वह महज अठारह साल की थी, अर्थात वह जस्ट एडल्ट हुई थी. अपने अन्य सहेलियों की तरह वह भी आगे पढ़ना चाहती थी. अपने पांव पर खड़ा होना चाहती थी. कुछ अपने मन का करना चाहती थी. अपने हिस्से की जिंदगी अपने मुताबिक खुलकर, सपनों के पुष्पक विमान में सवार होकर जीना चाहती थी. किंतु, उस जमाने के माता-पिता उतने लिबरल कहां हुआ करते थे ? बच्चों को उतनी लिबर्टी कहां दी जाती थी ? खुद के द्वारा बनाई हुई पटरी पर झोटियाकर चढ़ा देते थे घीस-घीस कर रटरटाते हुए चलने के लिए.
दामिनी को भी अपने मां-बाप की जिद्द के आगे आखिरकार झुकना ही पड़ा था. उसे अपने अरमानों की बलि देनी ही पड़ी थी. अपने सपनों के गगन को सीमित करना ही पडा था. मैना की तरह चहकने वाली चिड़िया शादी के बाद ससुराल में जाकर एक पिंजरे में कैद होकर रह गई. वहां उसके सपनों के पंख को कुतर दिया गया. उसकी चहचहाहट घर-आंगन तक ही सीमित होकर धीरे-धीरे लुप्त हो गई .
दामिनी का सपना था कि उसकी शादी खूब धुम-धाम से होगी. अन्य लड़कियों की भांति उसकी भी इच्छा थी कि वह भी दुल्हन बन अपने राजकुमार की प्रतीक्षा करेंगी. बारातियों के बीच घोड़ी पर बैठकर उसका राजकुमार आएगा और अपनी डोली में बैठाकर उसे ले जाएगा. वरमाला के वक्त वह सबसे किमती लहंगा पहनेगी और अपने अंदाज का जलवा वहां बिखेरेगी और कई ऐसे ही फलां फलां अरमान किंतु, ऐसा कुछ हुआ नहीं. दहेज में एक मोटी रकम देने के बाद उसके पिताजी के पास शादी में खर्चने के लिए रूपये शेष नहीं बचे थे. इसीलिए उसकी शादी बड़े साधारण तरीके से अंबिका देवी मंदिर में जाकर चंद मिनटों में ही संपन्न हो गई थी. दुल्हा अपने कुछ परिजनों के साथ मंदिर में आया और पंडितजी के चंद मंत्रों के साथ उसे अपना बनाकर ले गया.
दामिनी के पिताजी एक व्यवसायी थे. सिर्फ नाम का व्यवसायी. राशन की एक छोटी-सी दूकान चलाता था. इसीलिए उसका काउंट व्यवसायी वर्ग में होता था किंतु, अपने व्यवसाय के भरोसे उसे घर चलाना भी मुश्किल हो रहा था. वह चाहता था कि कोई दूसरा काम ढ़ूँढ़ लें किंतु, नारायणपुर जैसे मामूली-सी जगह में कोई अन्य विकल्प कहां था ? उसी राशन दूकान के बलबुते वह अपने जीवन की गाड़ी रटरटाते हुए खींच रहा था. दामिनी उसकी एकलौती बेटी थी, जिसे बियाहना उसकी सबसे बड़ी चिंता थी. दामिनी सुंदर थी इसीलिए लड़के वाले एक ही नजर में उसे पसंद कर लेते थे किंतु, उनकी डिमांड के आगे टिकना गिरधरलाल के लिए सबसे बड़ी समस्या थी. अपना पेट काट-काटकर दामिनी की शादी के लिए उसने कुछ रूपये जोड़ रखे थे.
जब सुंदरलाल के बेटे माधव का रिश्ता खुद उसके घर चलकर आया था तो उसे लगा कि सौदा ठीक – ठाक में ही पट जाएगा, किंतु, सुंदरलाल भी उतने रहम दिल नहीं थे. वह अपने बेटे माधव को ब्लेंक चैक मानता था. कहता भी था ‘मेरा माधो तो ब्लैंक चैक है, ब्लैंक चैक. मुंह मांगी रकम मिलेगी मुझे. एकलौता हैं मेरी सारी जायदाद का.’
काफी माथा-पच्ची के बाद आखिरकार पांच लाख रूपये नगद, एक मोटरसाईकिल और एक 26 इंच की रंगीन टी.वी के साथ सौदा पट गया. गिरधरलाल ने अपनी कुल जमा पूंजी और पत्नी के गहने बेचकर दहेज के रूपये तो किसी तरह जुगाड़ कर लिया किंतु, शादी में होने वाले खर्च के लिए उसके पास रूपये नहीं बचे. काफी सोच – विचारकर तय हुआ कि दामिनी की शादी मंदिर में करा दी जाए. सुंदरलाल भी इसके लिए झट से तैयार हो गए. वह ऐसा सुनहरा अवसर भला हाथ से कैसे जाने दे सकता था ? दहेज के चंद रूपये खर्च कर उसने शादी निपटा दी और बाकि रूपयों को उससे जमीन जायदाद खरीदने में लगा दिया.
शादी के बाद दामिनी ससुराल आई. नया परिवार, नये लोग, नये माहौल और नयी जीवनशैली के साथ वह कई दिनों तक जुझती रही. धीरे-धीरे उसकी जिम्मेदारियों का दायरा बढ़ता गया और अरमानों का दायरा सिमटता गया. ससुराल में कदम रखते ही उसकी पूरी जिंदगी ही बदल गई. अपने बाबुल की बगिया में सदा चहकने वाली बुलबुल अब दूसरों के इशारों पर नाचने वाली कठपुतली बन गई थी. उसका हंसना-बोलना, रोना-धोना, खाना-पीना, उठना-बैठना सब कुछ दूसरों के इशारों पर हो रहा था. उसे स्वतंत्रता थी तो बस सांस लेने और पलक झपकाने जैसी निहायत जरूरी चीजों की. सासुमां फ़नकार नागिन की तरह उसके इर्द-गिर्द फुफवाती रहती. अपनी विषैली जीभ लपलपाती रहती और मौका पाते ही उसपर झपट पड़ती.
इसी तरह सालभर बीत गया. अब ससुराल में उसने खुद को किसी तरह एडजस्ट कर लिया था. एक दिन वह अपनी सासुमां के साथ मंदिर में पूजा करने गई थी. वहां उसकी सहेली बृंदा मिली. वह अबतक कुवांरी थी और पटना से अर्थशास्त्र में एम.ए. कर रही थी. दो-चार फॉर्मल बातें ही उससे हो पाई और सासुमां के मुताबिक उसे वापस लौट जाना पड़ा. उसके मन में कई ऐसी बातें थी जो अनकही रह गई. मौका नहीं मिला अपना दुख-सुख बताने का. कुछ मन भर की बातें कर लेने का.
आज पहली बार उसे अहसास हुआ कि वह क्या से क्या बन गई है. उसकी जिन्दगी तो वास्तव में रिमोट कंट्रोलर बन कर रह गई है. उसकी आत्मा अबतक मर चुकी थी और मन कोमा में चला गया था. ससुराल में वह कोल्हू के बैल बनकर जी रही थी. ना थोड़ा अंदर और ना ही बाहर एकदम एक ही परिधि में निरंतर चक्कर काट रही थी. किसी को उसकी भावनाओं का कोई कद्र नहीं था. वह एक मशीन बन चुकी थी.
दामिनी गर्ववती हुई फिर भी उसके ससुराल वालों का रवैया नहीं बदला. उसकी सासुमां को बहु के रूप में एक नौकरानी मिल गई थी, जिसे वह सदा अपनी अंगुलियों के इशारों पर नचाना चाहती थी. उसके अरमानों, उसके सपनों और उसकी भावनाओं की ओर तो कभी उसका ध्यान ही नहीं गया था. उस पर अधिकार जताना वह अपना फंडामेंटल राईट समझती थी. थोड़ा-बहुत जो लाड़-प्यार उसे मिलता था उस घर में तो सिर्फ ससुर जी से.
एक दिन शाम को अचानक दामिनी को लेबर पेन शुरू हुआ. उसे झटपट अस्पताल में एडमिट कराया गया. वहां उसने एक बच्ची को जन्म दिया. बच्ची के जन्म होते ही उसके सासुमां के मन में जो भी उत्साह था सब ठंडे बस्ते में चला गया. एक पल में ही उसका मुंह उतर गया जैसे घर में कोई विपत्ति आ गई हो.
हद तो तब हो गई जब पंद्रह महीने बाद दामिनी ने एक और बच्ची को जन्म दिया. अब तो उसके ससुराल वाले उसके जानी-दुश्मन हो गए थे. कई रातें उसे भूखे पेट केवल सिसकियां भर-भरकर गुजारनी पड़ी थी. छोटे-छोटे बच्चों को पालना और ससुराल वालों के नित नए नखरों को उठाना उसके लिए आसान नहीं था किंतु, इसे अपनी नियति मानकर वह सबकुछ झेल रही थी. अपने पूर्व जन्म के किसी अनजाने पाप का प्रतिफल समझकर उसे भोग रही थी.
समय ने करवट ली और सुंदरलाल केंसर का शिकार होकर कुछ ही दिनों में इस दुनिया से सदा-सदा के लिए चले गए. अपनी सारी जायदाद एकलौता वारिस माधव के हवाले कर गया. माधव के ऊपर अचानक घर-परिवार की सारी जिम्मेदारियां आ गई किंतु, इसके लिए वह अभी मानसिक रूप से तैयार नहीं था. परिणाम यह हुआ कि जिम्मेदारियों के साथ वह संतुलन नहीं बना सका और आवारगी पर उतर आया. जीवन में उसका कोई स्पष्ट लक्ष्य नहीं रहा. नेतागिरी, एजेंटगिरी और कई अन्य क्षेत्रों में उसने हाथ आजमाया किंतु, हर क्षेत्र में नाकामयाब रहा और अब उसने शराबखाने की राह पकड़ ली थी. उसका अधिक-से-अधिक समय शराबखाने में जाया होने लगा था.
ससुर के गुजरते ही दामिनी का ससुराल कलह का अखाड़ा बन गया था. धन–दौलत भी धीरे-धीरे उसके घर से पलायन करने लगा था. माधव देर रात नशे में चूर होकर घर लौटता और रोज बखेड़ा खड़ा करता. दिन-ब-दिन उसका व्यवहार आक्रामक होता गया. अब उसने दामिनी पर हाथ उठाना भी शुरू कर दिया था. उसके जुल्म को सहते-सहते दामिनी टूट गई थी, बिखर गई थी. उसकी हिम्मत जवाब दे गई थी.
एक दिन नशे में धुत होकर माधव घर लौटा और बेबस, लाचार, बीमार पड़ी दामिनी पर अंधाधुंध हाथ-पांच बरसाना शुरू कर दिया. उसे अधमरा कर ही उसने दम लिया. दामिनी के बेहोश होते ही वह घर से पलायन कर गया. उसकी मां ने बहु की हालात की जानकारी उसके घरवालों को दी. अगर तुरंत उसके घर वाले वहां नहीं पहुंचते तो शायद दामिनी किसी अनहोनी के शिकार हो गई होती, किंतु ईश्वर को अभी यह मंजूर नहीं था.
दामिनी के मां-बाप ने अपनी बेटी को तुरंत हॉस्पीटल में भर्ती करवाया और स्वास्थ में सुधार होते ही उसे अपने पास ले गया. थाना-पुलिस की नौबत आ गई होती और माधव सलाखों के पीछे चला गया होता अगर दामिनी अपने पिताजी के पैरों में पड़कर उसके लिए माफी की भीख नहीं मांगी होती. औरत का दिल कितना बड़ा होता है. दूसरों के प्रति कितनी दया की भावना पाले रहती है. खुद पर आए सारे दुखों को सह लेगी किंतु, दूसरों को दुखी होते नहीं देख पाएगी. वाह ! क्या विशाल दिल है तेरा. शत-शत नमन.
दामिनी के जीवन की गाड़ी एक ऐसे मोड़ पर आकर अटक गई थी, जहां से वह ना आगे बढ़ पा रही थी और ना ही पीछे मुड़ सकती थी. बड़ी बेटी रूपम अब पांच साल की हो गई थी. उसकी पढ़ाई-लिखाई की चिंता उसे खाई जा रही थी. आज वह खुद को पूरी तरह से असहाय महसूस कर रही थी. क्या नहीं झेला था उसने लेकिन, बदले में उसे क्या मिला ? कुछ नहीं. दुख के सिवा उसकी झोली में और कुछ नहीं आया. धीरे-धीरे उसके दिमाग में नकारात्मक विचारों ने पूरी तरह से डेरा डाल लिया था. कभी-कभी वह खुद से इस कदर डर जाती कि सुसाइड तक का ख्याल भी आ जाता किंतु, अपनी बेटियों के लिए वह जीने को मजबूर थी.
उस दिन शाम को बाजार में वह बृंदा से अचानक ही मिल गयी थी. इस बार वह बृंदा का सामना नहीं करना चाहती थी. उससे नजरें बचाकर आगे निकलना चाही किंतु, बृन्दा की पेनी नजरों से वह बच नहीं पाई. उसे देखते ही बृन्दा चहक पड़ी –
ओय, हेलो दामिनी !
अब उससे बचकर भागना संभव नहीं था. पीछे मुड़कर वह बोली –
ओह हां, बृन्दा ! कब आई ? उसकी बातों में कोई रौनकता नहीं थी. कोई उत्साह नहीं था. बस एक फॉर्मलिटी मात्र थी.
मैं कल ही आई हूं. लेकिन तू इतनी बुझी–बुझी सी क्यों है ? घर में सबकुछ ठीक है ना ?
हाँ...हाँ, सब ठीक-ठाक है. बस कुछ दिनों से तबीयत ठीक नहीं थी.
अच्छा ठीक है. कल मैं शाम को तुम्हारे घर आ रहीं हूं चाय पीने. बाकि बातें वहीं होगी, अभी मैं थोड़ी जल्दीबाजी में हूं. ओ के, टेक केयर बाय.
बृंदा तो चली गई लेकिन उसके मन में बृन्दा को लेकर चिंता होने लगी थी. कल घर आएगी तो उसे मेरे बारे में सबकुछ पता चल जाएगा. घरवाले तो उसे सबकुछ बता ही देंगे. एक बार मन हुआ कि घर में सबको समझा देंगें कि उसके सामने कुछ भी मेरे बारे में नहीं बताएं लेकिन, आत्मा के किसी भाग ने इसका घोर विरोध किया. आखिर कब तक भागोगी सच्चाई से ? कब तक खुद को धोखा दोगी ? आखिर परिस्थितियों का सामना तो करना ही होगा और बृन्दा तो अपनी सहेली है तो फिर उससे बातें छिपाने की क्या जरूरत ? हो सके मेरी समस्या का कोई समाधान उसकी नज़र में हो. अपने मन को किसी तरह मनाते हुए वह घर पहुंच गई.
अगले दिन शाम ठीक 6.30 बजे बृन्दा उसके घर पहुंच गई. उसे लेकर दामिनी तुरंत अपने रूम में चली गई. दोनों के बीच इधर-उधर की ढ़ेर सारी बातें हुईं. दामिनी सच्चाई से हर बार भागने का प्रयास कर रही थी. अंत में बृंदा से रहा नहीं गया और बोली – दामिनी एक बात पूछूं ? शायद तुम मुझे अपना दोस्त नहीं मानती हो इसीलिए अपना दुःख-दर्द मुझसे भी बांटना नहीं चाह रही है. अरे पगली ! तुझे क्या लग रहा है मैं इतनी बेवकूफ हूं जो तुम्हारी गोल-गोल बातों के अंदर के दर्द को ना पहचान सकूं. मेरी मां ने तुम्हारे बारे में मुझे सबकुछ बता दिया है. इसीलिए तो मैं खासकर तुम्हारी कुछ मदद करने यहां आई हूं.
अब तो बृंदा से कुछ भी छिपा नहीं था. सबकुछ वह जान चुकी थी. अपने बारे में कुछ बताने से पहले ही वह फफक कर रो पड़ी. उसकी पीड़ा आंसुओं के साथ बाहर आने लगी थी. बृन्दा ने उसे अपने सिने से लगाकर चुप कराया. उसे दिलासा दिया, उसके आत्मविश्वास को बढ़ाया और उसे फिर से एक नई शुरुआत करने की सलाह दी. उसके सामने जीने के सारे विकल्प गिनाए. उसे जिन्दगी को सही तरीके से जीने का राह दिखाया.
बृन्दा के सुझाए रास्तों पर चलकर उसने कपड़े सिलाई का काम सीखना शुरू कर दिया. अपनी लगन और मेहनत की बदौलत छ: महीने में ही वह कपड़े की कटाई-सिलाई में काफी माहिर हो गई.
उसकी सहेली बृंदा खुद बैंक में कार्यरत थी. उसने दामिनी को बैंक से ऋण उपलब्ध करा दिया और उसकी मदद से दामिनी ने नारायणपुर में एक टेलर्स की दुकान खोल ली. धीरे-धीरे उसकी मेहनत रंग लाने लगी और सालभर में ही वह वहां की एक नामी टेलर मास्टर के रूप में शुमार हो गई. उसने अपना व्यवसाय बढ़ाना शुरू कर दिया. उसकी मशीनों और दुकानों की भी संख्या बढ़ने लगी. अपनी लगन व मेहनत के बलबुते उसने अपनी जिन्दगी को सही पटरी पर ले आया था. उसका आत्मविश्वास भी बढ़ता गया. अपनी बेटियों को वह अच्छे-अच्छे स्कूलों में पढ़ाने लगी थी और एक कम्फर्ट लाइफ के लिए सारे संसाधन जुटा लिए थे.
उधर उसके ससुराल वालों की दशा काफी दयनीय हो गई थी. माधव का तो बुरा हाल था. रात-दिन शराब पीकर टन्न रहता. उसकी सासुमां लाचार बेसहारा होकर दर-दर की ठोकरें खा रही थी. अपनी बहु के ऊपर जो भी जुल्म किया था उसका फल भुगत रही थी. उसकी सारी शान-शौकत और हेकड़ी पछाड़ खा रही थी. मर-मरकर जीने की आस अब मिट गयी थी. ईश्वर से अपने पास बुला लेने की रात-दिन कामना कर रही थी.
एक दिन दुकान बंद कर दामिनी घर वापस लौट रही थी. थोड़ी जल्दीबाजी में थी इसीलिए मेन रोड नहीं पकड़कर वह सॉर्टकट गली से निकल रही थी. आगे वह जब झोपड़पट्टी से होकर गुजरी तो अचानक सामने कई लोगों की भीड़ उसे दिखाई दी. वहां कुछ लोग लड़-झगड़ रहे थे. उसने अपनी स्कूटी को बगल से निकाल लेनी चाही किंतु, जैसे ही वह उस भीड़ के करीब आई उसके हाथ से स्कूटी छूट गई और वह उस भीड़ की ओर बेतहाशा भागी. उस भीड़ में लोगों के लात-घुस्से खा रहे व्यक्ति के पास गई और भींड़ को धकियाते हुए वहां से सबको अलग किया और उस व्यक्ति को उठाकर सीधे हॉस्पीटल जा पहुंची. उसे मामूली चोट आई थी इसीलिए वहां उसकी मरहम – पट्टी कराई और डॉक्टर को बिल चुकाकर सीधे वह घर वापस लौट आई.
अगले दिन सुबह घर का दरवाजा खोलते ही वह स्तब्ध रह गई. सिढ़ियों पर माधव सिर झुकाए बैठा था. उसकी आंखें डबडबाई हुई थी. उसे वहां देखकर दामिनी दरवाजा बंद करने ही वाली थी कि उसी समय उसकी बेटी रूपम वहां आ गई. बेटी को देखते ही माधव खड़ा हो गया. उससे मिलने के लिए तड़प उठा किंतु, दामिनी के भय से वह वहीं मूर्तिवत बना रहा.
माधव को वहां देखते ही उसकी बेटी बोली – पापा ! आप आ गए. हम आपको बहुत मिस कर रहे थे. मम्मी भी आपको याद कर बहुत रोती थी. आप अंदर आइए ना, बाहर क्यों खड़े है ?
बेटी की बातों को सुनकर माधव खुद को रोक नहीं सका. वह फफक पड़ा. रूपम दौड़कर उससे आकर लिपट गई. माधव ने उसे गोदी में उठा लिया. बाप-बेटी दोनों रो रहे थे. रूपम पिताजी के आंसू को पोंछकर उसे चुप करा रही थी. माधव उसे बार-बार सिने से लगा रहा था. झट से रूपम उसकी गोद से नीचे उतर गई और उसकी अंगुली पकड़कर उसे घर की ओर खींचने लगी. बाप-बेटी के प्यार को देखकर दामिनी की आंखे भी डबडबा गई. उसने भी माधव को माफ कर दिया था.
रूपम की मेहंदी लग चुकी थी. पास आकर दोनों हाथों को दिखाते हुए मां से पूछती है – मॉम ! कैसी लग रही है मेरे हाथों की मेहंदी ?
रूपम की आवाज़ सुनकर वह भूत से वर्तमान में लौट आई.
बहुत सुंदर मेरी प्यारी ! मेहंदी के ये रंग तुम्हारी दुनिया को भी रंगीन बना देगी. – कहकर दामिनी ने प्यार से अपनी बेटी के ललाट को चूम लिया.
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मौलिक एवं अप्रकाशित
@गोविन्द
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