उजड़कर क्या बसेगा गांव मेरा
यहाँ डालो ना कोई जंग-ए-डेरा
की रातें जा चुकी प्राता है शायद
घनी है तीरगी अब हो सबेरा
नज़र आये भी कैसे कोई गलती
कोई दिखता नहीं इतना घनेरा
ज़हन में देखो है नफ़रत सभी के
मिटे भी तो भला कैसे अंधेरा
तू भी रहता है बस उसके भरोसे
कोई तो आसमां भी हो की तेरा
(अप्रकाशित व मौलिक)
Posted on January 19, 2021 at 2:00pm
किसी और मंज़िल पे जाने का दिल है
कहीं और दुनिया बसाने का दिल है
अभी मैं नहीं इश्क में सरफरोश
मगर इस कदर जाँ लुटाने का दिल है
अभी तो नदी के सफ़र पे हूँ पैहम
समंदर के साहिल पे जाने का दिल है
कभी मुट्ठियों भर सितारे जला दूँ
कभी वादियों को जलाने का दिल है
कभी खाक कर दूँ सभी जख्म़ दिल के
युँ ही शय जलाने बुझाने का दिल है
(मौलिक व अप्रकाशित)
Posted on January 16, 2021 at 1:30am
आ. भाई आज़ी तमाम जी, सादर अभिवादन । मेरी गजलें आपको अच्छी लगीं यह हर्ष का विषय है । आपके इस स्नेह के लिए हार्दिक धन्यवाद।
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