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खुद से बाहर निकल नही सकता
बर्फ हूँ पर पिघल नही सकता

मेरे अंदर दबा है ज्वालामुखी
आग लेकिन उगल नही सकता

तेरी आँखे बदल भी सकती हैं
मेरा चेहरा बदल नही सकता

मुझ को मिट्टी मे तुम मिला भी दो
तेरे साँचे मे ढल नही सकता

मुक्त आकाश का मैं पंछी हूँ
किसी पिंजरे मे पल नही सकता

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Comment by Admin on May 22, 2010 at 11:02am
जबरदस्त, सारे के सारे शेअर जबरदस्त है, फौजान साहेब आप की इस ग़ज़ल की सबसे खाश बात यह है की बिलकुल साधारण शब्दों का पर्योग कर आप ने बहुत ही बड़ी बात कह दी है, बहुत बहुत धन्यवाद ,

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