स्वप्न अधूरे, भूखा पेट
होने को है, मटियामेट
कड़ी मेहनत, कड़े प्रयास
फिर भी बची न कोई आस।1
अनगिनत ग्रंथ, आंखें फोड़ी
मम जीवन, सम फूटी कौड़ी
सब कुछ किया, व्यर्थ जा रहा
कौन दुःख, मैंने न सहा । 2
देर तक पढ़ना, ऊंचे अंक
बेरोजगारी के, फंसा हूं पंक
कर्म का नियम, बना है निष्फल
हर पैड़ी पर, हुआ हूं असफल ।3
ऊंची-ऊंची, उपाधि अर्जित
अभिनव किया, बहुत कुछ सृजित
फिर भी यहां, नकारा बना हूं
अभाव, दुःखों से, कती सना हूं । 4
घर बैठा हूं, योग्य होकर
कामधंधा नहीं, न बना नौकर
पिल रहा हूं, तिल-तिल करके
परेशान हैं, मुझसे घर के ।5
न बन सका, घर का सहारा
कहीं नहीं जीता, हर जगह हारा
बेशर्म, निठल्ला, ढीठ बना हूं
फूल, फल नहीं, ठूठ तना हूं । 6
अमूल्य जीवन, बना है नर्क
हो चुका अब, कती मैं गर्क
बाकी बचा है, अब तो रोना
रही न आयु, अब क्या होना ।7
बहुत कुछ करने के, सपने संजोए
कांटे ही मिले, आम्र वृक्ष बोए
कर्म-नियम यहां, होता न लागू
हर रस्ता बंद, कहां बच भागूं । 8
पुरुषार्थ से न जीवन बदला
हर दिन होता आया गदला
हंसु-रोऊं, किसी को क्या
मरूं-जीऊं, किसी को क्या । 9
बदत्तर जीवन, जाहिल-गंवारों से
तंग आ चुका; मित्र-प्यारों से
पशुवत जीवन, जीने को मजबूर
हो गया हूं, सबसे ही दूर । 10
संवेदनशीलता, कमजोरी बन गई
सर्वाधिक दुर्गति, मेरी ही हुई
चोंट पर चोंट, मुझे मिली हैं
फूल बना नहीं, कली बिना खिली हैं । 11
एक भी जरूरत, हुई न पूरी
सबने बना ली, मुझसे दूरी
क्या चल रहा, समझ न पाया
किसी ने भी मुझे नहीं बताया । 12
दुःख, कष्ट, हताशा, अभाव
पानी फिर रहा, हर एक चाव
सब देख रहे होते विनाश
कोई महत्त्व नहीं; आस, विश्वास । 13
चिंता, तनाव, बेरोजगारी, परेशानी
मेरी बस है, यही दुःख कहानी
औरों के पचड़े में, कोई नहीं पड़ता
शुरू से ही मैं, रहा हूं सड़ता ।14
भौतिक समृद्धि, देखी न कभी
बदत्तर हालत, है अब भी
परिवार पर, मैं एक भार हूं
क्या हुआ; मेहनती, ईमानदार हूँ । 15
शर्म, हिचक; बहुत होती है
अंतरात्मा बार-बार रोती है
कर-करके, कुछ कर न पाया
टोटे, अभाव का, न छूटा साया । 16
बाहर जाने में भी, आती है शर्म
जो सोचा था, निकला सब भ्रम
क्या हो रहा, मेरे संग-साथ
सब तरह से, हो चुका अनाथ ।17
अयोग्य, नकारा, बैठे पदों पर
मेरा जीवन सम, गधे लदों पर
रोने के सिवाय, कुछ कर न पाता
मेरा हल मुझे, कोई नहीं बताता । 18
सुनने पड़ते हैं, सबके ताने
बुरा कहते हैं; जाने, अनजाने
जीवन बस, बना एक बोझ
रहे दौड़ता, जैसे कोई रोझ । 19
ऊंची पढ़ाई, ऊंची शिक्षा
चल रहा जीवन, मांगकर भिक्षा
मुझसे अच्छे हैं, अनपढ़ व गंवार
तरक्की के खुले, उन हेतु ही द्वार । 20
जीवन जा चुका, आधे से ज्यादा
बाहरी-भीतरी कोई, हुआ न फायदा
रोज कर रहा, हताशा रेचन
मारक विष से, हुआ है सेंचन । 21
साहित्य रच दिया, रच रहा हूं
समय ने बहाया, मैं बहा हूं
कर्म का फल मुझे, मिला न कोई
समान बना हूं, उतरी हुई लोई । 22
योग्यता मेरी, व्यर्थ में जाती
क्या करे कोई, गोती-नाती
व्यथा अपनी, कहूं मैं किससे
थोड़ी राहत तो, मिल जाती इससे । 23
सबको अपनी-अपनी ही पड़ी है
मेरी हर एक, सांस उखड़ी है
दुःख के सिवाय, मिला न कुछ
यह जीवन तो, तुच्छ से तुच्छ । 24
हर रोज कई बार, आता है रोना
पाया कुछ नहीं, चल रहा खोना
चल रही है, यह लीला कैसी
दुर्गति हुई न, किसी की ऐसी । 25
लगता है सब, अंधाधुंध चलता
मेहनती बर्बाद, बस कपटी फलता
पुरुषार्थ ने, कर दिया बर्बाद
मरण समीप है, न हुआ आबाद । 26
कर्मयेाग मेरा, चाट रहा धूल
बर्बाद हो चुका, मैं बिल्कुल
क्या करूँ, कुछ समझ न आता
कोई भी मुझे, नहीं बताता । 27
न अध्यात्म, न भौतिक समृद्धि
तनाव, कुंठा की; होती आई वृद्धि
पिल रहा हूँ, बैल के समान
बढ़ी हैं उलझन, नहीं समाधान । 28
विधायकता को, क्या मैं चाटूं
किसके संग, दुःखों को बांटू
जन्म लेना, बेकार चला गया
भीतर तक, मुझे हिला गया । 29
कोई भी गुण, काम नहीं आया
अभाव टोटे का; सदा रहा साया
खेल रहा यह, लीला कौन
छोड़ दिया बोलना, अब हूं मौन । 30
होता क्या है, सिर्फ बताने से
सबको मतलब, सिर्फ पाने से
सब हैं अपनी, मस्ती में मस्त
मेरा सूर्य हो चुका है अस्त । 31
इतनी पीड़ा, क्या जिक्र करूं
परे समझ से, जीऊं या मरूं
हो गया हूं, मैं कती अकेला
खुब देखा यह, जग का मेला । 32
जग नक्कारखाना, मैं तूती हूं
पैरों की बस, मैं जूती हूं
कितना रोऊं, कौन सुनता है
ज्ञान, अज्ञान घर, सिर धुनता है । 33
मेहनत कड़ी, मिला नहीं फल
किसी समस्या का, हुआ न हल
रोना ही शायद, रह गया बाकी
दुःख सहने को, जी सकूं ताकि । 34
दोष दूं किसको, मैं ही बड़ा दोषी
सबके प्रति ही, की सरफरोसी
भुगत रहा हूं, इसका मैं दंड
टूट चुका हूं, हो चुका खंड-खंड । 35
पागल बना मैं, स्याना होकर
पीछे पड़े सब, हाथों को धोकर
मेरे सिवाय, सब ही सयाने हैं
जूत अपमान के, अभी खाने हैं । 36
बात-बात पर रोना आता
अपनी पीड़ा स्वयं बताता
फूर्सत नहीं सुनने की किसी को
दुर्भाग्य शायद, कहते हैं इसी को । 37
बहुत कुछ करने की ठानी थी
अब लगता शायद नादानी थी
जो कुछ होता, हो जाता है
पता नहीं कोई, क्या पाता है । 38
कर्मफल शायद, हो सकता सत्य
पुरुषार्थ क्यों, हो रहा असत्य
कहते हैं यह, सबसे बली है
मेरी करने में उम्र ढली है । 39
पीड़ा समझे, कौन भीतर की
माने हुए, अपने मित्र की
घुट-घुट करके, रहो यहां मरते
ढोर समान, घास-फूस चरते । 40
पैरों पर मित्र, खड़े हो जाते
मदद करने को, फिर नहीं आते
स्वार्थ साधने को, तत्पर रहते थे
सबसे प्यारा, खुद को कहते थे । 41
मुझे लगता है, सब अनिश्चित
स्वार्थवश हैं, घृणा या प्रीत
जो होना हो, हो जाता है
असहाय, मुझ सम पाता है । 42
मुफ्त के टुकड़े, तोड़ रहा हूं
खुद अपना सिर, फोड़ रहा हूं
हाथ-पैर पटकूं, करूं प्रयास
असफल पुरुषार्थ, कुछ नहीं आस । 43
स्वयं हो रहा या कोई करता है
कोई बर्बाद, कोई व्यर्थ उभरता है
गरीब, असहाय से; किसने जाना
अबोध समृद्ध व्याख्या, यही बस माना । 44
जो समझे यहां, पीड़ा मेरी
वही मित्र है, बिना किसी देरी
इस कसौटी पर, कोई नहीं उतरा
हर दिन बढ़ता आया है खतरा । 45
न मित्र हुआ कोई, न हालत सुधरी
नीयत सबकी, विकारों से है भरी
मेरा दुःख इससे, बढ़ गया कई गुना
सब कर देते, इसे यहां अनसुना । 46
सच्चा मित्र, यदि मिल जाता
तो इतना दुःख, मैं नहीं पाता
बताने मात्र से, हो जाता हल्का
भारीपन चला जाए, जैसे जल का । 47
जीवन व्यर्थ, हो रहा व्यतीत
स्नेह मिला नहीं, नहीं कोई प्रीत
सब कुछ होते, कुछ भी नहीं है
भलि-बुरी मुझे, सबने कही । 48
एक-एक पल यहां, वर्ष के समान
हर दिशा में, मुझे मिले व्यवधान
व्यक्ति और व्यवस्था, दोनों ही विरोधी
रोक रहे मुझे, जाने से संबोधि । 49
मेरी पीड़ा यहां, कोई न जाने
सभी बने यहां, बहुत बड़े सयाने
सीमा होती है, दमन करने की
घड़ी रही न; मेरी उभरने की | 50
आधी चली गई, बची है आधी
बढती जाती है, आधि-व्याधि
थक चुका हूं, सब कुछ करके
मुक्ति मिलेगी, स्यात मुझे मरके । 51
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