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अभिलाषा (व्यंग्य कविता)

चाह नही मेरी कि मैं ,अफसर बन सब पर गुर्राउं।
चाह नही मेरी कि मैं ,सत्ता में दुलराया जाऊं।।
लाल बत्ती की खातिर मैं ,अपनों का न गला दबाऊं।
गरीब जनों की सेवा करके ,आशीर्वाद उन्हीं का पाऊं।।
बड़े हमेशा बड़े रहेंगे ,छोटों को भी बड़ा बनाऊँ।
हर एक बच्चा बने साक्छर ,रोजगार के अवसर लाऊँ।।
मिटे गरीबी आये खुशहाली ,ऐसी मैं एक पौध लगाऊँ।।

.
(नीरज खरे)
मौलिक एवम् अप्रकाशित

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Comment by rajesh kumari on June 8, 2016 at 1:41pm

सुन्दर प्रस्तुति हार्दिक बधाई आपको 

Comment by maharshi tripathi on June 7, 2016 at 5:02pm
सुंदर प्रयास पर आपको बधाई !!!
Comment by Shyam Narain Verma on June 6, 2016 at 4:50pm
इस सुंदर रचना के लिये बधाई स्वीकार करें ।

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