हिन्दी साहित्य में प्रोषित और प्रवस्यत-पतिकाओ के लिये वर्षा ऋतु के श्रावण मास का विशेष महत्त्व है I प्राचीन समय में व्यवसाय-सिद्धि के निमित्त गए हुए प्रवासी प्रियतम अथवा राज्य –विस्तार एवं शत्रु को पराभूत करने की आकांक्षा से सीमान्त प्रदेश में अवस्थित नरेश ‘चातुर्मास्य‘ की विषमताओ को लक्ष्य कर पावस ऋतु में ही अपने अभियान से विमुख होकर प्रत्यावर्तित होते थे I यही कारण है कि सावन के मन-भावन माह में प्रियतम की बाट जोहती नायिकाओ के ह्रदय में संयोग की कामना और उसकी असंदिग्ध परिणति की आशा से एक अपूर्व उल्लास छा जाता था I रीति-काल के प्रसिद्ध रीतिमुक्त कवि और प्रेम की पीर के अमर गायक घनानंद ने इस स्थिति का अत्यंत सजीव वर्णन किया है I
सावन आगम हेरि सखी, मनभावन आवन चोप विसेखी I
छाये कहूं घन-आनंद जानि संभारि की ठौरि से भूलनि देखी I
बूँद लगै, सब अंग दगै, उलटै गति आपनि पापनि देखी I
पौन सो जगत आग सुनी है पै पानी ते लागत आंखनि देखी I
घनानंद की इन पंक्तियों से मानव मन और प्रकृति के शाश्वत संबंधो का भी आभास होता है I वर्षा ऋतु का प्रमाद स्त्री एवं पुरुष के शरीर-धर्म को अधिकाधिक उद्दीपन प्रदान करता है I ऐसे असंयमजन्य वातावरण में आलंबन और आश्रय एक दूसरे का पूरक बनने के लिए आमने-सामने हों तो अनुभाव, संचारी भाव एवं उद्दीपन मूर्त रूप में काव्य-चित्र के साथ साकार हो उठते है I कवि देव के निम्नांकित ‘कवित्त’ में इस चित्रमयता को वर्ण-मैत्री, अलंकार-योजना एवं नाद-सौन्दर्य के अनुपम संगम के सुन्दर निदर्शन के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है I
सहर-सहर सोंधो सीतल समीर डोले
घहर-घहर घन घेरि के घहरिया I
झहर-झहर झुकि झीनी झरि लायो देव
छहरि- छहरि छोटी बून्दनि छहरिया I
हहर-हहर हंसि-हंसि के हिंडोरे चढी
थहर-थहर तनु कोमल थहरिया I
फहर-फहर होत तन प्रीतम को पीत पट
लहर-लहर होती प्यारी की लहरिया I
वर्षा ऋतु जहाँ स्वकीया नायिकाओ के लिए आशाप्रद एवं अभीष्टदायिनी है वही परकीया को भी अपनी जुगुत बिठाने का इसमें भरपूर अवसर मिलता है I कृष्ण अभिसारिकाओ के लिए पावस-अमावस का भयानक वातावरण सर्वाधिक उपयुक्त माना गया है I वे नंगे पैर कीचड में चलकर संकेत स्थल की ओर इस तन्मयता से अग्रसर होती है कि अंधकार में पैरो से लिपट जानेवाले विषधरो का उन्हें आभास भी नहीं होता I आकाश से तीर की भांति बरसने वाली पानी की बूंदे उनमे नवीन उत्साह का संचार करती है I अयोध्या नरेश मानसिंह ‘द्विजदेव’ ने कृष्णाभिसरिका की निर्भयता को निम्नांकित छन्द में भली प्रकार रूपायित किया है I
कारो नभ कारो निसि कारिये डरारी घटा
झूकन बहत पौन आनंद के कंद री I
‘द्विजदेव’ सांवरी सलोनी श्यामजू पे कीन्ह्यो
अभिसार लखि-लखि पावस अनंद री I
नागरी सुनागरी सु कैसे डरे रैनि डरि
जाको संग सोहे ये सहायक अमंद री I
वाहन मनोरथ उमाहै संगवारी सखी
मन-मद-सुभट मशाल मुख-चंद री I
संयोग के अतिरिक्त वर्षाकालीन विप्रलंभ अन्य ऋतुओ की अपेक्षा कही अधिक कष्टप्रद और मर्मान्तक होता है I इसमे ‘पूर्वराग’ अथवा ‘मान’ का कोई विशेष महत्त्व नहीं है I वर्षा ऋतु का प्रवास से सहज सम्बन्ध है I इसलिए वे विरहिणी नायिकाएं जिनके प्रिय का विदेश से आना संभव नहीं है वे इस ऋतु की शीतलता में भी दग्ध होती रहती है I चूंकि प्रिय के आगमन की सम्भावना नहीं रहती अतः अवसाद स्थाई-भाव के रूप में उनके मुख पर विराजमान रहता है और एक प्रकार की निश्चिन्त्यता उनमे व्याप्त होती है हालाँकि संयोगिनियो को देखकर उनका संताप और अधिक बढ़ता है I पर वियोग की एकादश अवस्थाओ मे से अभिलाषा, उद्वेग, चिंता, उन्माद, जड़ता ,प्रलाप, मूर्च्छा आदि की स्थितिया प्रायशः नहीं उत्पन्न होती I किन्तु इसके विपरीत स्मृति, गुणकथन जैसी अवस्थाये इस प्रकार की प्रोषितपतिकाओ में अवश्य पाई जाती है I मैथिलीशरण गुप्त कृत ‘साकेत’ की नायिका उर्मिला के ह्रदय में टंका हुआ मधु-पावसी स्मृति का एक मनोरम चित्र यहाँ प्रस्तुत है I
मै निज अलिंद में खडी थी सखी एक रात
रिमझिम बूंदे पड़ती थी घटा छाई थी I
गमक रहा था केतकी का गंध चारो ओर
झिल्ली झंकार यही मेरे मन भायी थी I
करने लगी मै अनुकरण स्वनूपुरो से
चंचला थी चमकी घनाली घहराई थी I
चौंक देखा मैने चुप कोने में खड़े थे प्रिय
माई मुख लज्जा उसी छाती में छिपाई थी I
इस तरह की अनेक उद्भावनाए कवियो ने ‘स्वप्न’ आदि अवस्थाओ के अंतर्गत दर्शाई है I स्मृति, अभिलाषा आदि वर्णनों में भी ऐसे बहुतेरे भाव चित्र मिलते है I इन चित्रों में संवेदना तो अवश्य मुखरित होती है पर विप्रलम्भ का पूर्ण परिपाक इनमे नहीं हो पाता I अलबत्ता ‘करुण’ दशा में विरह का वर्णन प्रभावी बन पड़ता है I हिन्दी साहित्य में आदिकाल से लेकर पूर्व आधुनिक काल तक करुण दशा के मनोहारी चित्र मिलते है I महाकवि मालिक मुहम्मद ‘जायसी’ के विश्रुत नागमती-विरह-वर्णन का निम्नांकित पावसी चित्र इस द्रष्टि से अतिशय महत्वपूर्ण है I
सावन बरस मेह अति पानी I भरनी परी हौ बिरह झुरानी I
लागि पुनर्वसु पीउ न देखा I भउ बाउर कहं संत सरेखा I
रकत कै आंस परै भुइ टूटी I रंगि चली जनु वीर-बहूटी I
हिय हिंडोल अस डोलै मोरा I विरह फुलाय देय झकझोरा I
बाट असूझ अथाह गंभीरी I जिउ बाउर भा फिरै जंभीरी I
जग जल बूड जहाँ लगि ताकी I मोर नाव खेवक बिनु थाकी I
पर्वत समुद अगम बिच बीहड़ घन बन ढांख I
किमि कइ भेंटउ कंत तुम्ह न मोहि पांव न पांख II
इस प्रकार हिन्दी साहित्य में पावस के अनेक बहुवर्णी चित्र विद्यमान है I इनमे से प्रवस्यत्पतिकाओ के पावसी संयोग अथवा वियोग की जो संक्षिप्त झांकी यहाँ दर्शाई गयी है वह ऋतु-वर्णन में वर्षा का महज एक आभासी चित्र है I हिन्दी साहित्य में ऐसे द्रश्यो, ऋतु और ऋत्वागो के वर्णन का प्रभूत भंडार रक्षित है I कहना न होगा कि यह अनमोल रत्नाकर अधिकांशतः रीतिकालीन रचनाओ में छिपा हुआ है I वर्तमान समय में ‘बारहमासा’ या ‘षट ऋतु वर्णन’ पुराने फैशन की चीज है i जो कवि प्रयास करते भी है वे ऋतु के लक्षणों का ही वर्णन मात्र करते है I मानव मन को संवेदना से जोड़कर ऋतु का वर्णन करना अब बेमायने हो गया है I नागर सभ्यता के विकास ने हमारे अन्दर ऋतुओ की समझ समाप्त कर दी है और उसकी सूक्ष्मानुभूति से हम महरूम हो गये है I
ई एस-1/436, सीतापुर रोड योजना
सेक्टर-ए, अलीगंज ,लखनऊ
मो 0 97 95 51 85 86
(मौलिक व अप्रकाशित )
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आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव सर, हिंदी कविता में वर्षा ऋतु और सावन मास पर बहुत सुन्दर आलेख लिखा है. आलेख के शीर्षक "सावनी संगीत और कविता की रिमझिम" पढ़कर आमिर खुसरो साहब की पंक्तियाँ याद आ गई जो कई गायकों द्वारा शास्त्रीय संगीत से लेकर लोकगीतों तक में गाया गया है. सावन के महीने में इस गीत को सुनता हूँ तो झूम जाता हूँ-
अम्मा मेरे बाबा को भेजो जी कि सावन आया,
बेटी तेरा बाबा तो बूढ़ा री कि सावन आया।
आ० मिथिलेश जी
आपका सादर आभार
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