ओबीओ के आयोजनों की सर्वमान्य विशेषता ही यह है कि यह रचनाकारों के लिये एक वर्कशॉप की तरह है. एक-एक रचना पर जैसी खुली मीमांसा इस मंच पर होती है उतनी अन्यत्र शायद ही होती हो. सीखने-सिखाने की परंपरा का पवित्र निर्वहन जिस तरीके ओबीओ के मंच पर होता है मैं नहीं समझता कहीं और इतनी गंभीरता से होता है. यही कारण है कि यहाँ रचनाओं को साहित्यिक धुरंधरों की गर्वोक्तियों से नहीं, अपितु, प्रस्तुत रचना की शिल्पगत और भावजनित प्रतिष्ठा के अनुरूप सम्मान मिलता है.
इसी क्रम में एक और प्रक्रिया जो एक परंपरा का प्रारूप लेती जा रही है, वह है आयोजनों में प्रस्तुत मात्रिक-वर्णिक रचनाओं के शिल्प और उसकी विधा के अंतर्निहित भाव और संप्रेष्य कथ्य के अनुरूप प्रतिक्रिया संप्रेषण. यह प्रक्रिया नव-हस्ताक्षरों को जहाँ रचना के शिल्प और उसकी विधा के प्रति संशयों का निवारण करने में सहायक होती है, वहीं शिल्पों और विधाओं के कई अन्य रूपों को भी समक्ष लाती है.
इस प्रक्रिया से यह भी होता है कि रचना में रह गयी कोई शिल्पगत कमी पकड़ में आजाने पर उसका निराकरण वहीं हो जाता है तथा उस स्थिति में मात्र उक्त रचनाकार ही नहीं, सभी सदस्य लाभान्वित होते हैं.
हालाँकि, यह भी देखा गया है कि कई स्थापित या स्व-नाम धन्य या मंचीय रूप से सफल रचनाकार इस प्रक्रिया को आसानी से स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, मान्य-अमान्य कारण चाहे जो हों. आने वाले समय में इस परिपाटी और प्रक्रिया पर अवश्य विचार होगा कि इसे इसी रूप में लागू रहने दिया जाय, या, वस्तुतः कौन सा रूप दिया जाय. किन्तु, अपने कर्म और उद्येश्य के प्रति समर्पित तथा अपने धर्म या कर्त्तव्य के प्रति जागरुक ओबीओ का यह मंच सतही चारणता पर नहीं, अपितु दूरगामी सकारात्मक प्रभाव पर दृष्टि रखता है.
वैसे इस बार कई रचनाकारों ने प्रतिक्रिया-रचनाएँ नहीं दीं है जैसा कि पिछले कई आयोजनों में होता रहा है. किन्तु, आदरणीय अम्बरीष जी ने इस परंपरा का पालन किया है. कई प्रतिक्रिया-रचनाएँ सर्वर की तकनीकी दिक्कतों के कारण डिलीट हो गयी हैं. इस अपूरणीय हानि के प्रति हम हार्दिक रूप से संवेदननील हैं.
सद्यः समाप्त महा उत्सव के अंक - 13 की प्रविष्टियों की प्रतिक्रिया स्वरूप जो रचनाएँ संप्रेषित हुईं, उनको भी सूचीबद्ध किया जा रहा है. ये रचनाएँ भी मात्रा और वर्ण के लिहाज से किसी तरह से दोयम दर्ज़े की नहीं हैं. इन प्रतिक्रिया-रचनाओं का सूचीबद्ध होना ही इनके स्तर का द्योतक है.
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आदरणीय योगराज प्रभाकर जी
कुण्डलिया
//मौसम बना महोत्सव, दे दें इसको मान.
ओ बी ओ पर आपका, स्वागत है श्रीमान.//
स्वागत है श्रीमान, करें मौसम की बातें
आग उगलती धूप, कभी सर्दी की रातें
कभी हवा के गीत, कभी बरखा की छमछम
ओबीओ पे आज, बने कुछ ऐसा मौसम !
दोहे
इसके हर इक रूप का, करता है गुणगान,
मौसम के मज़मून का, ऐसा किया बखान !
विरहा मौसम रूह पे, छोड़े ऐसी छाप
दिल को पीड़ा देत है, जब लेता आलाप !
मस्ती में डूबे रहें, गुल ये शाम सवेर,
गुलशन को रंगीं करें, अपनी महक बिखेर !
मौसम नामी चीज़ ने, दुनिया रक्खी हाँक,
माशा है कि तोला है, कोउ सके ना आँक !
समझ नहीं आया कभी, लाखों कीनी शोध,
आज तलक भी राज़ है, कैसा यह अवरोध !
समय समय करता रहें, सबको ये आगाह !
दुनिया सारी दास है, ये शाहों का शाह !
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आदरणीय अम्बरीष श्रीवास्तव जी
सवैया
मौसम 'मत्तगयंद' हुआ प्रभु छंद सवैयन की धुन बाजी,
स्वागत प्रीति करे सबका 'मदिरा' महके 'अरविन्द' कहा जी,
प्रेम पयोनिधि पान करैं सब छंद मनोहर लागि रहा जी,
आप गुणी गुरुदेव बने उर अंतर आशिष मांग रहा जी..
मत्तगयंद रचा तुमने यह मस्त बना है हिया से बधाई,
आज महोत्सव छंदन का अब खूब रचो तुम संजय भाई,
शब्द लिए दुइ चारि भले फिर तो है भला अब कौन बुराई,
मौसम आज वसंत लगे उपहार सबै मिलि छंदन पाई..
सुन्दर सुन्दर सौम्य सुहावनि छंद सुभाषित संजय भाई,
मत्तगयन्द प्रवीण बने अब आप 'हबीब' सुविज्ञ सवाई,
राह भई अब और सुरम्य त मौसम माहिं मयूर नचाई.
मोहक मोहक छंद रचैं रसना रसना रस रास रसाई..
सौरभ सुंदर मत्तगयंद पे मौसम का मन झूम उठा है
राग-विराग लिए फिर भी अब छंदन को मन चूम उठा है
बोल मनोहर साज बने, मदमस्त पुरंदर घूम उठा है
ओस की बूँद जो सीप पड़ी तब मोतिनि मोतिनि बूम उठा है ||
दोहे
जय हो जय हो बागडे, यहाँ लगी है होड़.
संचालक धर्मेन्द्र जी, छंद बद्ध है दौड़ ..
मौसम बना महोत्सव, दे दें इसको मान.
ओ बी ओ पर आपका, स्वागत है श्रीमान..
सही कहा हे मित्रवर, ठंडक हुई जवान.
जिसके पीछे वह पड़े, उसकी कांपे जान..
कम्बल मंहगे हो गये, कथरी गयी बिकाय..
जाड़ा लगे गरीब को मुँह से निकले हाय..
बहकी बहकी चाल है, नहीं लगे कुछ ऐब.
ठंडक कैसे क्यों लगे, अभी गरम है जेब..
मौसम लेकर आ गया, ठंडक की सौगात.
छोटे छोटे दिन हुए, लम्बी लम्बी रात..
सत्य वचन हे मित्रवर, क्यों करते संताप.
सुख दुःख का हो सामना, जीवन सँवरे आप
साथी मौसम की तरह बदल रहे बहु आज.
सब पर इनका है असर, चले चित्र का राज..
मौसम भला चुनाव का, वोट नोट की मार. .
बिरयानी दारू चले, पग पग रंगे सियार..
मौसम बदला है यहाँ, जहाँ सभी को ठौर..
शहरों से जी भर गया, चलें गाँव की ओर..
लोकतंत्र की आड़ में, राज तंत्र घनघोर.
नहीं सियासत चाहिए, नहीं चाहिए और..
अच्छे लगते हैं सभी, हर मौसम से प्यार.
जीवन सूना है नहीं, रंग भरें त्यौहार..
अंगड़ाई मन भा रही, शीतल चले बयार.
आज गुनगुनी धूप से करें सभी जन प्यार..
बहुत भला दोहा कहा, दिखे जहाँ जज्बात.
सब मिल बनें वसंत जो, खिले पुष्प सा प्रात..
ग़जब ग़जब दोहे रचे, ज्यों हों पुष्प पलाश,
बहुत बधाई आपको, मित्र मेरे अविनाश..
दोहे पर दोहा कहें, दर्शन से भरपूर.
योगी जी को है नमन, उनका घना उबूर..
मौसम को पहचान कर, सदा करें सब काम.
राग-तान भी जानिये, सब में प्रभु का नाम ..
सदा सफ़र में जो रहे, उसको मौसम शाप.
छुट्टी ले घर जाइये, खिलता मौसम आप..
खिलती जूही की कली, उड़ता चला पराग.
महके 'बेला' आप ही, अपने अपने भाग..
खिड़की-साँकल ही भली, देती कुछ तो मान.
फटी-फटी जो आँख है, उसको भी सम्मान..
षड्-दर्शन से क्या भला, प्रभु-दर्शन की प्यास.
तत्त्व-वत्त्व को त्यागिये, उन्हें दरस की आस..
राहों में तो शेष हैं, चिताजनक निशान.
फटी बिवाई की फिकर, करते नहिं इंसान ..
अति उत्तम दोहे रचे, इतना घना उबूर.
बहुत बधाई आपको, मौसम बना मयूर..
भाई सौरभ आप तो, छंदों के विद्वान्.
हम तो सीखें आपसे, हमें मिल रहा ज्ञान..
कुण्डलिया
दोहा कुण्डलिया बना, ले रोलों का भार,
बहुत गुणी हैं आप तो, योगी जी आभार,
योगी जी आभार, आप की महिमा न्यारी,
मिला मधुर आशीष, हुए हम सब आभारी,
मन भाया है छंद , शिल्प ने सबको मोहा.
सर्दी बरखा धूप, खिले हर मौसम दोहा..
तेरह ग्यारह जोड़िये, मधुर बनेगा छंद
जगण विषम में त्याज्य है, दोहा दे आनंद,
दोहा दे आनंद, साथ गुम्फित हो रोला,
बहे मधुर रसधार, मगन दिल है यह बोला,
ग्यारह से प्रारंभ, गा रचें रोला ग्यारह,
कुण्डलिया अनमोल, कहे ग्यारह पर तेरह..
संजय-भाई नें रचे, मधुर-मधुर दो छंद,
वृक्ष धरा शृंगार हैं, काटें सब मतिमंद.
काटें सब मतिमंद, उन्हें मिलकर समझायें,
ना मानें जो आज, उन्हें औकात बताएं,
भटकें ना हम आज, प्रीति मौसम की पाई.
छंद सभी अनमोल, रचें अब संजय-भाई..
//घर में रह कर भी रहे, बेगाना जो शख़्स !
उससे तो सफ़री भला, घर वाले दें बख़्श !!//
घर वाले दें बख़्श, सफ़र पर उसको भेजें,
खीचें उससे माल, सभी एक साथ सहेजें,
हिस्से उसके पाव, सदा वह रहता डर में
चार दिनों का साथ, जिन्दगी देखें घर में..
//मौसम आये तो करें, खिले फूल उत्पात..
’बेला’ को अब क्या कहें, खिलती आधी रात !//
खिलती आधी रात, तभी तो महके दुनिया,
अपनों में हो प्यार, चाहती कब से मुनिया,
मस्त मस्त वह गीत, गा रहीं कब से बेगम,
प्यारा घर संसार, वहीं खिल जाता मौसम..
बरवै
सौरभ जी का देखो, जी अंदाज़.
बरवै ऐसे कहते, बजता साज ..
हाइकू
गज़ब
एकादशी ये
वाह वा
क्या कहें?
सारगर्भित
त्रिपदी
क्या खूब
मस्त मस्त है
आ हा हा
त्वरण
बहुत खूब
साहिब
क्यों नहीं
लग जाइए
काम पे
यही तो
है सार तत्त्व
जानिये
हैं मिले
यारों के यार
ब्रजेश
आभार
नहीं है काफी
बधाई
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आदरणीय धर्मेन्द्र कुमार सिंह सज्जन
कह-मुकरी
सबपर स्नेह सुधा बरसावै
पीठ ठोंक उत्साह बढ़ावै
मस्त कलंदर जैसे जोगी
ऐ सखी साजन? न सखी योगी
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आदरणीय संजय मिश्रा हबीब जी
दोहे
स्वागत स्वागत हर्ष है, खुला सही मौसम
अम्बर आये शूर बन, रहें ना अन्दर हम.
रिप्लाई थी बंद तो, दिल छाया था गम
सूना मंजर सोचता, क्यूँ बिगड़ा मौसम?
चलो पधारे हैं अभी, ‘अम्बर’ लेकर हर्ष
नमन सभी का, दें चलो, मौसम को उत्कर्ष.
देखो देखो उमड़ धूम, दोहों की बरसात
जैसे सुन्दर गुनगुना, सरदी में परभात
झरना बन सुन्दर झरे, कोमल प्यारे भाव
लहरों में मन डोलता, डोलत जइसे नाव
पद्य
सच कहते भाई धरम, अब महकता उपवन
मौसम देख बिखर रहा, हुआ मन सम चन्दन
कुण्डलिया
//अम्बर का नेतृत्व है,अम्बर तक की दौड़.
लिखने वालों में मचे ,स्वस्थ-सुहानी होड़.//
"स्वस्थ सुहानी होड़, जगाएं सुन्दर मौसम
भागे आफिस छोड़, मनाने उत्सव को हम
छोड़ बहाने बैठ, कहीं ना जाना दम भर
खिले अब इन्द्रधनुष, जगमगा जाए अम्बर"
सवैया
साज बजे नित प्रेम पगे मन गात चले नव मौसम आया
आज खिले नव पुष्प यहां पर बागन नूतन मौसम आया
नाच रहा मन मोर बना बस नाच रहा मृदु मौसम आया
आज मिले उर नेह भरे बरसात चला सुख मौसम आया
मस्त मनोहर मत्तगयंद सवैयह छंद रचें सब भाई
'मौसम' छंद महाउतसौ पर औसर व्यापक छाडि न जाई
राह दिखावन को उपलब्ध यहां गुरु वृन्द सुभाग कि नाई
और रचा यदि सुन्दर छंद सुभासित तो गुरु देत बधाई
बरवै के अनुरूप कुण्डलिया (एक प्रयास)
"बरवै मोहक लाये, अम्बर भाइ
लो हक से दें उनको, आज बधाइ
आज बधाइ, कुण्डलिया भी न्यारी
हिया में धुन, बजे पावन प्यारी
सुन्दर छंद, नित नव सुन्दर रचिथै
रचते न अब, कवि वृन्द छंद बरवै
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सौरभ पाण्डेय
पद्य
मन में मौसम तन में मौसम,
पोरहि पोर में मौसम ताप.
मस्त-मस्त हो लस्त हुए हैं,
उभ-चुभ झूमें अपनहिं आप. ..
ऋतु आयें औ’ नीर बहायें
माह-दिनन की गणना लेखो
लोहित लीला लास रही है
चकित स्वयं है अम्बर देखो !!
दोहे
घर में रह कर भी रहे, बेगाना जो शख़्स !
उससे तो सफ़री भला, घर वाले दें बख़्श !!
मौसम आये तो करें, खिले फूल उत्पात..
’बेला’ को अब क्या कहें, खिलती आधी रात !
दीखे ’अम्बर’ झूमता, मनहर करता अर्थ
ज्ञान-व्यान तो क्या कभी, भाव कभी ना व्यर्थ
’मौसम’ पर दोहे रचें, भाईजी अविनाश
कथ्य-शिल्प को साधते, करते सहज प्रयास
बरवै
अम्बर रचते बरवै, कलमें तोड़
विधा लुप्तप्राय थी, इनको ओड़
सवैया
//प्रीति पयोनिधि पैठ पियो पै प्रीतम पावन मौसम है,
प्रेम प्रसून प्रगान करो रति काम सुहावन मौसम है//
पीन पयोधर की छलकी बुनिया-रसधार लिये चलतीं
नींदन आँख खुली नखुली रतजाग भई अलियाँ कहतीं ... !!!
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आदरणीय गणेश बाग़ी जी
पद्य
मौसम की मदहोशी में,
भूल गए सब काज,
दोष ससुर मौसम का,
औ हम पर होते नाराज,
मौसम कुछ ऐसा बना, सोना लगे सबको प्यारा,
खुल न सका किवाड़, मौसम सब काम बिगाड़ा,
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आदरणीय अविनाश बागड़े
दोहे
अम्बर का नेतृत्व है,अम्बर तक की दौड़.
लिखने वालों में मचे ,स्वस्थ-सुहानी होड़.
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आदरणीय भाई सौरभ जी ! आप ने इन समस्त प्रतिक्रिया रचनाओं को संग्रहीत करके बहुत अच्छा कार्य किया है ! परिणामतः सभी प्रतिक्रिया रचनाओं को एक ही स्थान पर एक साथ ही पढ़ा पढ़ा जाना संभव हो सका है ! प्रतिक्रिया रचनाओं पर प्रायः यथोचित ध्यान नहीं दिया जाता है जिससे उन्हें वह मान सम्मान नहीं मिल पाता जिसकी वह रचनाएँ वास्तव में हकदार है! आपके सद्प्रयास से इस संकलन के माध्यम से वह सभी रचनाएँ गौरवान्वित हुई हैं ! इस श्रमसाध्य कार्य के लिए आपका हार्दिक आभार !
सादर:
रचनाओं की प्रतिक्रिया रचनाओं का संकलन...
वाह! इस सुकाज के लिए सादर आभार एवं बधाई आद बड़े भईया
आदरणीय सौरभ जी, प्रतिक्रियाये किसी भी आयोजन व कलमकारों के लिए महत्वपूर्ण होती है, काव्य परिवेश में प्राप्त प्रतिक्रियाओं को संकलित कर आप ने एक महत्वपूर्ण कार्य किया है, बहुत बहुत धन्यवाद और आभार आपको |
हौसला अफ़जाई के लिये आप सभी का हार्दिक धन्यवाद.
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