रेलगाड़ी अपनी खिड़की से, नूतन दृश्य दिखाती,
कहीं पहाड़, कहीं पर जंगल, आस पास दिखलाती.
अचल अटल पर्वत हैं कैसे, जंगल सुरभित होते..
अगर पहाड़ न होते, तो ये जंगल कहाँ से होते
जंगल अगर न होते, तो फिर बारिश कहाँ से होती
बारिश अगर न होती, तो ये नदियां कहाँ से होती.
नदियों का जल सिंचित करता, खेत, बाग़ सस्यों का.
नदियों संग ही जन्मी सभ्यता, सिंधु, द्रविड़, आर्यों का,
शस्य पूर्ण धरती को करता, जलधारा अमृत सा,
महिषी गायें जीवन देतीं, दूध पिला निज थन का.
ईख, धान, सब्जी के पौधे, मन को कहीं लुभाते,
बाग़ बगीचे, आम्र, कदली के, फल को वही चखाते
शीशम के ये पेड़ खड़े हो, शक्ति अपनी दिखलाते,
शाल संग ये सागवान भी, वन सम्पदा कहाते..
नदी चौड़ी पर पुल से होकर, रेल गाड़ी जब चलती,
घर्षण,स्पंदन का स्वर, संगीत कर्ण में भरती.
रेल गाड़ी है गजब सवारी,,लोहे के पथ चलती,
अपने अंदर शत शत जन को, संग उमंग से भरती..
भारत देश की जीवन रेखा, रेलगाड़ी कहलाती,
भारत के ही प्रांतों का, यह सैर सदा ही कराती.
रेलगाड़ी की छुक-छुक छुक-छुक जीवन की गाथा है,
एक साथ ही शत शत जन को प्रेम से मिलवाता है.
(मौलिक व अप्रकाशित)
-जवाहर लाल सिंह
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