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शुक्ला जी गाँव के चौउराहा प पहुँच के, एने-ओने ताके लगले ! जईसे कुछ खोजत होखस ! फेर जाके बरगद के पेड़ तर बईठल एगो आदमी से पूछने, “ई हुशियार पुर ह न ?”

“हूँ, का भईल?” ऊ आदमी कहलें !

“अरे, हरिहर तिवारी जी की इहाँ जाएके बा ! घरवा नईखी जानत !” शुक्ला जी कहलें !

“तिवारी भाई किहाँ, उनकर रिश्तेदार हईं का ?”

“नाही, बाकिर सब ठीक रहल त रिश्तेदार बन जाईब, ओही खातिर आईल बानी !”

“अच्छा, ऊ कईसे?”

“केहू से सुनि के उनकी बड़का लईका खातिर आईल बानी ! सुननी बड़ी होनहार लईका ह, आ परिवारो नीक बा !”

“अच्छा, शादी-बियाह के फेर में” ऊ आदमी तनि गंभीर होके कहलें, “नाही, बढिए बा ! तिवारी भाई, अपने देहीं ठीक आदमी हंवे ! आ लईकओ....ठीके ह, बस तनि...?” ई कहिके ऊ आदमी चुपा गईलें !

“बस तनि का? कौनो बाति बा ?” शुक्ला जी चौक के पूछलें !

“नाही, कुछ खास ना ! सब ठीक बा !”

“नाही, कौनो त बाति बा, बताईं ! हमरी लईकी के जिनगी के सवाल बा !”

“कहल त ना चाहत रहनी हं, बाकिर सुनी, तिवारी भाई त ठीक आदमी हंवे, बाकिर ऊ लईका एक नम्बर के पियक्कड़ ह ! झगड़ा-लड़ाई ओकरा खातिर आम बा !”

“का कहतानी, सही में ?” शुक्ला जी एकदम बऊवा गईने !

“हम काहे खातिर झूठ बोलब, रऊरा जाईं, खुदे देखब !”

“ना, अब ना जाएब, एकदम ना जाएब ! राऊर धन्यवाद भाई !” कहिके शुक्ला जी वापस चल दिहलें !

अब ऊ आदमी के बगल में बईठल नन्हका कहलस, “का काका, पियक्कड़ त छोटका ह न ?”

“बाकिर ई आईल त बड़का खातिर रहने ह न !” कहिके ऊ आदमी मुस्काए लगले !

-पियुष द्विवेदी ‘भारत’  

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Replies to This Discussion

पियुष भाई भोजपुरी लघु कथा पर राउर परयास निकहा पसन आईल , कहानी के प्लाट बहुते सुनर बनल बा, अंतिम में जाके कथा आपन सही निर्णय पर न्याय करत प्रतीत नईखे हो पावत , दुगो बात कहल चाहत बानी ...
1- बियाह शादी के मामला में सामान्यतया एक से अधिक आदमी जाला ---- एह बात के उल्लेख करती त नीमन रहित, वईसे ऐसे बहुत अंतर नईखे पड़त ।
2- कथा के अंत में बियाह काटे वाला के मनसा के पता नईखे लागत, ---- एह बात के ध्यान रखल बहुते जरुरी बा ।

आदरणीय गणेश जी, कथा भटकल बा, ई जानि के तनि खेद जरूर भईल ! खैर, परयास चलता !

1- बियाह शादी के मामला में सामान्यतया एक से अधिक आदमी जाला ---- एह बात के उल्लेख करती त नीमन रहित, वईसे ऐसे बहुत अंतर नईखे पड़त ।
2- कथा के अंत में बियाह काटे वाला के मनसा के पता नईखे लागत, ---- एह बात के ध्यान रखल बहुते जरुरी बा ।


हम दु आदमी के उल्लेख करेवाला रहनी, बाकिर फेर ई कथ्य के हिसाबे ठीक ना  बईठल त हटा दिहली ! आ ऐसे कौनो बहुत बड़हन अंतर नईखे पड़त ! आ राऊर दूसर बाति कि कथा के अंत में बियाह काटे वाला के मनसा के पता लागत - त एकर हम अपनी ओर से प्रयास कईले बानी, बाकिर हो सकेला कि मनसा स्पष्ट ना हो पावत होखो ! अंत के दुगो वाक्य देखीं -

अब ऊ आदमी के बगल में बईठल नन्हका कहलस, “का काका, पियक्कड़ त छोटका ह न ?”

“बाकिर ई आईल त बड़का खातिर रहने ह न !” कहिके ऊ आदमी मुस्काए लगले !

एह संवाद-वाक्यन से हमरा आशा रहे कि ऊ आदमी के मनसा स्पष्ट हो जाई ! पियक्कड़ छोटका बा, बाकिर बियाह काटे खातिर झुट्ठे बड़का के पियक्कड़ बतावल गईल, ई उद्देश्य एहिजा स्पष्ट करे के ही हमार उद्देश्य रहे ! एकबार फेर तनि गौर करीं ! सादर !

पियूष भाई हम कुछ कहल चाहत बानी आ रउआ कुछ समझत बानी .....हम कहनी हा कि...........

//कथा के अंत में बियाह काटे वाला के मनसा के पता नईखे लागत, ---- एह बात के ध्यान रखल बहुते जरुरी बा//

मतलब इ बा कि उ आदमी के कुछो खुनस रहल होई तब नु बियाह कटले होई, उ खुनस के पता नईखे चलत, हर करम के पाछु कारण होखे के चाही |

अब शायद हमार बात स्पष्ट हो गईल होई |

आदरणीय गणेश जी, आपके बात स्पष्ट हो गईल, दम बा ! जल्द-ही सुधार करतानी ! बाकिर, एगो बाति अऊर कहब कि कुछ अईसन भी 'बियाह कटवा' होखेल  सन, जौन बिना कौनो खुन्नस के, बस एहिंगा बियाह काटेल सन, शायद ओकनी के एहमे मज़ा आवेला ! हम ओही सोच प ई कथा लिखले बानी !  फेर भी, राऊर सुझाव प सुधार के कोशिश करब ! सादर !

बियाहकटवा के होखल भा लउकल अपना गाँव-जवारन में अब कवनो नया बात नइखे. एह लोगन के मनोदशा ओह ओदल जरत लकड़ी अस होला जवन निकहा जरि के उपकारी आगि त दे ना पावेले, हँ, धुआँत बगूला से घर-आँगन के लोगन के आँखी के लोर के कारन जरूरे हो जाले. एह राक्षसी आचरण में कवन आनन्द बा, आजु ले ई ना बुझाइल. खैर, ई त बाति भइल बियाहकटवन के. 

राउर कहानी प हम ईहे कहबि जे जवन टटका ढंग से ई सुरु भइल, अंत ले आवत ना आवत जइसे अपनहीं से बुला उबिया गइल का !  ना कवनो इसारा क सकलस, ना ओह मोड़ से आगा के राह बता पवलस. खलसा एगो बतकूचन के साक्षी बनि के रहि गइल. विश्वास बा, आगा से कहानी (भले लघुकथा काहें ना) के उद्येश्य अपना कवनो ना कवनो रूप में झलकत लउकी. खैर, राउर एह प्रयास प बधाई.. .

आदरणीय सौरभ जी, कथा आपन उद्देश्य स्पष्ट करे में असफल बा, ई जानि के खेद भईल, बाकिर परयास बा, सुधार होई !

अब ऊ आदमी के बगल में बईठल नन्हका कहलस, “का काका, पियक्कड़ त छोटका ह न ?”

“बाकिर ई आईल त बड़का खातिर रहने ह न !” कहिके ऊ आदमी मुस्काए लगले !

एह संवाद-वाक्यन से हमरा आशा रहे कि ऊ आदमी के मनसा स्पष्ट हो जाई ! पियक्कड़ छोटका बा, बाकिर बियाह काटे खातिर झुट्ठे बड़का के पियक्कड़ बतावल गईल, ई उद्देश्य एहिजा स्पष्ट करे के ही हमार उद्देश्य रहे ! एकबार फेर तनि गौर करीं ! सादर !

अपना प्रति-उत्तर में जौन तूं इसारा क रहल बाड़ऽ, भाई, ऊ हमरो लउकल रहे. एकरा बादो हम कुछ कहि गइनीं, त हमरा ईहे बुझाइल जे ओकर माने-मतलब प एगो रचनाकार के तौर प तहार ध्यान परी. भाईजी, रउआ अपनहीं खुस बानीं त हमनी अस के कुछऊ कहल अनेरिये बा. राउर खुसी में हमरो खुसी.. .

शुभ-शुभ

आदरणीय सौरभ जी, बात खुस नाखुस के नईखे, हमरा खेद बा, कि ई कथा भटकल बा ! बाकिर, हम आपन पक्ष रखनी, आ रऊरा आपन ! आ अंत में, कौनो रचना के निमन-बाऊर के निर्णय, रचनाकार से बढियां पाठक करेलन ! राऊर  सादर आभार कि आपन बहुमूल्य विचार रखनी !

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