सशक्त जो बड़ी सुंदर प्यारी
स्वयंवर की जिसके शोभा निराली
मोहित करती हर नृप को, क्यूँ नियति के आगे सदा ही हारी।।
सौंदर्य की प्रतिमूर्ति
खान गुण-ज्ञान की दुनियाँ जानी
हर वीर की वो अभिलाषा, ऐसी अतुलनीय वो सुंदर नारी।।
मृगी के जैसे नयन है जिसके
कोयल जैसी उसकी वाणी
मोरनी के जैसी चाल थी जिसकी, द्रुपद की ऐसी राजदुलारी।।
अर्जुन-कर्ण से प्रतिभागी
शौर्यता जिनकी जग ने जानी
देव-मानव भी जिनसे हारे, अजय थी जिनके धनु की वाणी||
उज्ज्वल कीर्ति जिसका निर्मल चरित्र था
क्यूँ न राधेय वो स्वीकारी
सूतपुत्र होना क्या मेरा गुनाह था, कर्म से होती पहचान हमारी।।
प्रतिभागी वो शक्तिशाली
फिर भी सावित्र में कमी थी भारी
ठुकराती उसे सूतपुत्र कहकर, जो पति रूप में पार्थ को पानी||
बड़े-बड़े योद्धा बड़े बलशाली
अतुल्य पराक्रम थे अभिमानी
छोड़ सभी को फिर क्यूँ उसने, बंधित दासता थी स्वीकारी।।
शब्द कर्म से ज्यादा श्रेष्ठ है
सुन चांपेश को हुई हैरानी
अपमानित करती भरी सभा में, छलनी अंतस तक कर डाली।।
लज्जित करती क्यूँ भरी सभा में
जिसकी परिकल्पना न किसी ने जानी
हतप्रभ मैं आश्चर्यचकित था, सोच क्यूँ-कैसी उसके मन में आनी।।
व्यथित बड़ा मैं वेदनापूर्ण था
पूछता हूँ मैं सब नर-नारी
क्यूँ रोक सकी न अपने पिता को, जिसने गुरुओं को बोले अपशब्द भारी।।
स्वयंवर में गया मैं सहायक बनकर
करने मीत की वो रखवाली
पक्षपात हुआ क्यूँ प्रतिस्पर्धा में, क्यूँ धनुर्धरों का वहाँ पलड़ा भारी।।
खड़ग-तलवार न गदायुद्ध की
न मल्ल की थी वहाँ तैयारी
वीरों का अपमान हुआ क्यूँ, पूछता हूँ बन एक सवाली।।
गांडीवधर के मोह में फँसी क्यूँ
सही-गलत न क्यूँ विचारी
आकर्षण उसका रविनंदन पहला, फिर छोड़ गई क्यूँ हो मतवाली।।
पाँच पतियों की पत्नी बनी क्यूँ
दोष नियति का यही था भारी
पाँच पुत्रों में बाँट दिया उसको, मति माता की क्यूँ भ्रम में डाली।।
उल्लघंन न करती राजमाता का
क्यूँ आज्ञा मानी बन बेचारी
संपूर्ण कहलाती जो हमेशा, जिंदगी अबला, कैदी-सी क्यूँ स्वीकारी||
दासता की बेड़ियाँ स्वीकार क्यूँ करती
घर की चौखट से बंधकर रहती
गुलामों की तरह से जिंदगी जीती, थी इंद्रप्रस्थ की जो महारानी।।
यज्ञसैनी वो आग से जन्मी
क्यूँ भस्म न उनको थी कर डाली
क्यूँ झूठ-मूठ के रिश्तों में बंधती, जैसे मीन तड़पती बिन बहता पानी।।
स्वीकार करी क्यूँ इस निर्णय को
ज्ञान, सोच-विचार क्या शर्म भी त्यागी
दुनियाँवाले तो बात करेगें, जब धारणा बदलती कुरु महारानी।।
पुरुष प्रधान इस पूरे देश में
कोई न ऐसी देखी नारी
एक पति संग बिहाई गई जो, फिर पाँच पतियों को थी स्वीकारी।।
आमंत्रण दे इंद्रप्रस्थ बुलाती
उपहास उड़ाती हो मतवाली
शब्दों का होता परिणाम भयंकर, क्यूँ भूल जाती है ये पांचाली।।
पासे के खेल का मिला न्यौता
पांडवों के क्यूँ संग में आनी
जानती थी ये कर्म घिनौना, क्यूँ विश्राम न करती इन्द्रप्रस्थ महारानी||
वस्तु की तरह से तौली जाती
चौसर खेल की बात निराली
दांव लगाते धर्मराज उस पर, क्यूँ रिश्तों के दांवपेंच में फँसी बेचारी।।
अपमानित होना न उसका नसीब था
रच नियति क्या खेल थी डाली
मामा शकुनि को मित्र खिलाएं, क्यूँ न केशव ने तब कमान संभाली।।
कठपुतली बन रह गई कैसे
झूठे रिश्तों में क्यूँ बिसरानी
षडयंत्र था चौसर का खेल तो, शिकार हो गई जिसकी नारी।।
हार चुके थे पांडव खुद को
फिर स्वतंत्र स्त्री क्यूँ दांव लगानी
सही ठहराते कैसे इस दांव को देखों, वहाँ बैठे सब सम्मानित ज्ञानी-ध्यानी||
पराजित मनुज कैसे दांव खेलता
नियम-अधिकार क्यूँ सब शर्त भुलानी
वंश की इज्जत जो कहलाती, पड़ी निवस्त्र थी क्यूँ उसे करानी||
हार गए खेल छोड़ते नहीं क्यूँ
ज़ोर-जबरदस्ती की न बात थी आनी
लालच बड़ा था युधिष्ठिर का, तब बुद्धि उसकी थी चकरानी||
घर की इज्जत बच जाती
शायद युद्ध की स्थिति न तब फिर आनी
दु:ख के दिवस कुछ बढ़ जाते, पर महाभारत की न बात थी आनी||
सैरंध्री को झुकाना युद्ध का मकसद
खंडित करते कुल-परंपरा सारी
बालों से घसीटकर भोजाई को लाता, कुरुवंशी राक्षस दु;शासन हो अभिमानी||
रिश्तों की मान-मर्यादा को धूल मिलाता
बुद्धि उसकी क्यूँ बौरानी
आगे पीछे की नहीं सोचता, न भाभी माँ था उसको जानी||
प्रार्थना करती वो विनती करती
पैरों तलक भी गिर जाती
नारी नहीं जैसे कोई वस्तु, जिंदगी उसकी क्यूँ मज़ाक बनानी||
क्या स्त्रियों की कोई मर्यादा न होती
क्यूँ अग्नि परीक्षा उसे पड़ती देनी
नियति उसको हर बार क्यूँ छलती, क्यूँ अहमियत उसकी न किसी ने जानी||
हाँ मेरी गलती मानता हूँ मैं
थी अपशब्द संग मेरी गंदी वाणी
मेरे किए का पछतावा मुझको, अब कर्मफल की बारी आनी।।
हाँ अपराधी मैं, मेरा मित्र है
क्यूँ अपराध नहीं वो अपना पहचानी
जलते दिए को क्यूँ ज्वाला बनाती, कहती कड़वी बात करती शैतानी।।
वस्त्र जो खींचा सजा वो पायेगा
बात जहन में मेरे आनी
उनको कैसे छोड़ दिया उसने, जिसने बेचने की थी उसको ठानी।।
स्वीकार न करती दूसरे पति को
सती स्त्रियों में मान्यता भारी
गरीब का घर तक बसा वो देती, पर सौतन कभी न सती स्वीकारी||
कुछ दंतकथाओ में मान चलो तो
सम्मुख ऐसी बात भी आनी
वर्णन करता आपको ऐसे, सुनकर हो हैरानी||
अपना पक्ष रखती द्रौपदी ऐसे
जो प्रेम था उससे करता
बातचीत का अंश उसकी सखी से, द्रौपदी मुख से वर्णन यहाँ मैं करता||
इंकार किया मैंने उस महावीर को
क्यूँ कर्ण नहीं स्वीकारा
आधार बताती मैं पिता प्रतिज्ञा, इसलिए पड़ा ठुकराना||
पांचाल देश का राजा द्रुपद
मित्र जिसका द्रोणा
ले सर्वश्रेष्ठ जाति को मतभेद बढ़ा तो, घूँट द्रोण को अपमान का पड़ा था पीना||
पांडवों को वो शिक्षित करते
मकसद बंदी बनाना
राज्य छिनते से उनकी मदद से, मित्रता में उन्हे आधा पड़ा लौटाना||
ब्राह्मणों की मदद ले यज्ञ है करते
लक्ष्य पुत्र प्राप्ति जिसका होना
गुरु द्रोण का वध है करना, मन में पिता द्रुपद ने ठाना||
प्रेम करती थी मैं कर्ण से
जो मन को मेरे हरता
दूर-दूर तक चर्चे जिसके, हर महारथी जिससे डरता||
मेरी सुंदरता, बुद्धि, विवेक सब
कर्ण का मोहित करता
मेरी निडरता उसके मन को भाती, हृदय मुझे दे बैठा||
लक्ष्य भेदता आँख में देखकर
ऐसा धनुर्धर योद्धा
बड़े-बड़े योद्धा भी पानी न माँगे, ऐसा महावीर कर्ण था||
मजबूर खड़ी थी वक़्त के आगे
जो स्वयंवर तिरस्कारा
कारण बताती उसका तुमकों, जो अक्षम्य मेरा कर्म था||
सोचती थी एक तरफा है प्रेम मेरा ये
कर्ण मुझे प्रेम न करता
भ्रम-शंका रही उलझती, कर्ण भी न इज़हार प्रेम का करता||
दादा भीष्म को जब बताता
पता इस बात का मुझे जब चलता
जिससे मैं सदा प्रेम थी करती, प्रेम वो भी मुझसे करता||
किया गलत मैं भी मानती
हृदय आत्मग्लानि में सदा ही भरता
इसके भी कुछ तथ्य लेकिन, जिसे हर कोई नहीं समझ सकता||
पूर्व जन्म में मुझे वरदान मिला
प्रभाव था मेरे तप का
भिन्न गुणों में जिन्हे महारत हासिल, ऐसे पतियों का मुझको वर था||
युधिष्ठिर को कहते धर्म का ज्ञाता
भीमसेन गदाधर कहलाता
अर्जुन धनुर्धर, सहदेव कहलाता अश्व चिकित्सक, नकुल होता भविष्यज्ञाता||
सूत पुत्र होना बना दूसरा कारण
समाज में जाति-धर्म का भेद बड़ा था
निभाना ऊँच-नीच का फ़र्क भी था, जो कारण मेरे अपयश का बनता||
दासी बनकर रहती सदा ही
मेरा कर्ण पति जो होता
कठपुतली कहलाता दुर्योधन का, कभी वो स्वतंत्र राजा नहीं बन सकता||
दुर्योधन के मित्र होने से
भेद मन में होता
बदला पूरा होता कैसे पिता का, जो गुरु द्रोण न मरता||
मना करते स्वयं कृष्ण भी मुझको
महायुद्ध में काल का ग्रास कर्ण बनता
विधवा होकर मुझे जीना पड़ता, नहीं तो सती हो जाना पड़ता||
उम्मीद उसी से रखती थी मैं
जब चीर हरण मेरा होता
कारण आत्मग्लानि के मदद न माँगती, क्यूँ प्रतिरोध वो खुद न करता||
मित्र के संग में अपमान है करता
जो हृदय में मुझको रखता
कैसे स्वीकार करती इस अपराध को, जो भूल वश वो करता||
हो सकते बस यही कारण सब
कर्ण द्रौपदी नहीं वर सकता
सर्वप्रथम प्रेम जो उसका, न दिया परिस्थितियों ने भी मौका||
कोई न जाना इस भेद को
तो तुझको आज बताया
प्रेम जिगर में कर्ण की ख़ातिर, पर पतिरूप में न उसको पाया||
चहेरा बनी जो नए समाज की
वचन-कुप्रथाओ को क्यूँ सदा ही मानी
क्यूँ स्वीकार करती सब रीति-रिवाज, ये बात समझ न किसी को आनी।।
जानें कितने आधार बनाते
जाने कितनों की आदर्श नारी
इज्जत, आबरू लुटते नारी की, क्यूँ सदियों से नारी की यही कहानी।।
तिरिया चरित्र पर उँगली उठाते
सदा निर्मलता का चाहें चरित्र निभानी
रिश्तों की गले में डाल बेड़ियाँ, शिकार नारी है क्यूँ बन जानी।।
कभी कौरव से शोषित होती
क्यूँ दासता पांडव की वो स्वीकारी
कभी वक्त की मार को सहती, आज भी बिखरे टुकड़ों में कहीं मिल जानी।।
स्वरचित व मौलिक रचना
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