सु्धीजनो !
दिनांक 21 जून 2014 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 38 की समस्त प्रविष्टियाँ संकलित कर ली गयी है.
इस बार प्रस्तुतियों के लिए उल्लाला तथा गीतिका छन्दों का चयन हुआ था. तथा, प्रदत्त चित्र पीपल के वृक्ष का था.
इस बार भी छन्दोत्सव में प्रबन्धन और विशेष रूप से कार्यकारिणी के कई सदस्यों की अपेक्षित उपस्थिति नहीं बन सकी अथवा बाधित रही. पुनः कहूँगा, कारण कई होंगे. किन्तु, समवेत प्रयासों के अपने धर्म और दायित्व हुआ करते हैं. पुनः, कि, मंच के आयोजनों के प्रति अन्यमनस्कता के भाव मंच रूपी समष्टि के प्रति स्वयं स्वीकार्य दायित्वों के विरुद्ध व्यक्तिवाची सोच के सतत घनीभूत होते चले जाने के कारणों में से है.
ऐसी सोच इस मंच की अवधारणा ही नहीं है.
आयोजन में रचनाकार के तौर पर सक्रिय सदस्यगण व्यक्तिगत सीमाओं के बावज़ूद अच्छा प्रयास कर रहे हैं.
मैं इस बार के अंक में विशेष रूप से कार्यकारिणी के वरिष्ठ और सम्माननीय सदस्य आदरणीय अरुण निगमजी की प्रतिभागिता को इस मंच के प्रयासों की उपलब्धि मानता हूँ जिन्होंने पहली बार गीतिका छन्द पर अभ्यास कर्म किया तथा प्रतिक्रिया छन्दों के माध्यम से अत्यंत समृद्ध आशु रचनाएँ कीं.
कुल मिला कर 14 रचनाकारों ने अपनी प्रस्तुतियों से इस आयोजन को समृद्ध किया. इसके अलावे कई सदस्य पाठक के तौर पर भी अपनी उपस्थिति जताते रहे. उनके प्रति मैं हार्दिक रूप से आभार व्यक्त करता हूँ.
इस मंच की अवधारणा वस्तुतः बूँद-बूँद सहयोग के दर्शन पर आधारित है. यहाँ सतत सीखना और सीखी हुई बातों को परस्पर साझा करना, अर्थात, सिखाना, मूल व्यवहार है. इस धर्म-वाक्य को चरितार्थ करते हुए इस आयोजन की समस्त रचनाओं का श्रमसाध्य संकलन डॉ. प्राची सिंह ने किया है. मैं आपके इस उदार और स्वयंमान्य सहयोग के लिए आपका हृद्यतल से आभारी हूँ.
छंद के विधानों के पूर्व प्रस्तुत होने के कारण स्वयं की परीक्षा करना सहज और सरल हो जाता है. इसके बावज़ूद कतिपय रचनाओं में कुछ वैधानिक तो कतिपय रचनाओं में कुछ व्याकरण सम्बन्धी अशुद्धियाँ दिखीं.
वैधानिक रूप से अशुद्ध पदों को लाल रंग से तथा अक्षरी (हिज्जे) अथवा व्याकरण के लिहाज से अशुद्ध पद को हरे रंग से चिह्नित किया गया है.
आगे, यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.
सादर
सौरभ पाण्डेय
संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव
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क्रम संख्या |
रचनाकार |
स्वीकृत रचना |
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1 |
सौरभ पाण्डेय |
गीतिका छन्द
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2 |
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी |
गीतिका छंद वृक्ष पीपल का कहूँ या प्राण दाता मै कहूँ ओषजन जिससे सदा दिन रात मै लेता रहूँ , छाँव इनकी प्राण दायी, बैठ के देखो ज़रा हाँ , दवा के रूप में भी ये उतरता है ख्ररा
ढंग जीने का सिखाते , निर्जनों में देखिये जिजिविषा को देखिये, जीना इन्हीं से सीखिये सीख लेनी चाहिये , विपरीतता में जी सकें पत्थरों से भी कभी पानी निकालें , पी सकें
नीम तुलसी और पीपल देवता के रूप हैं छाँव कहलो छाँव हैं ये, धूप समझो धूप हैं मौन आशीषों से हमको ये नवाज़े हैं सदा और जीवन बाँटते हमको रहें हैं सर्वदा
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3 |
आदरणीय अशोक रक्ताले जी |
गीतिका छन्द
वृक्ष पीपल के युगों से सद्गुणों की खान हैं रातदिन निर्मल हवा दें प्राकृतिक वरदान हैं पात इसके छाल इसकी अंग हर गुणवान हैं हर नगर के मन्दिरों की वृक्ष पीपल शान हैं ||
दाद-खुजली दांत के हर दर्द में आराम दें, कोपलें नन्ही हरें हर पीर में यह काम दें छाल है औषधि दमे की मुक्ति दाता राम दें, वृक्ष पीपल देव हैं राहत हमें हर याम दें ||
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4 |
आदरणीय अरुण कुमार निगम जी |
उल्लाला छन्द
मन की गाँठें खोलते , हरित पर्ण हैं डोलते | अपनी भाषा बोलते , अमिय कर्ण में घोलते || हम पीपल के अंग हैं, धूप- छाँव के रंग हैं | हरि केशव के संग हैं , बसते यहाँ विहंग हैं || वेदों में गुणगान है , पीपल बहुत महान है | औषधियों की खान है, दादा-पिता समान है || सिखलाता उत्कर्ष है ,जीवन उन्नति-हर्ष है | यदि सम्मुख अपकर्ष है,तो जीवन संघर्ष है || जीवन के सम्मान में , जी जाये वीरान में | हरित पर्ण ने गान में, यही कहा है कान में ||
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5 |
आदरणीया राजेश कुमारी जी |
गीतिका पेड़ पीपल का खड़ा है, आज भी उस गाँव में बचपना मैंने गुजारा, था उसी की छाँव में तीज में झूला झुलाती,गुदगुदाती मस्तियाँ गीत सावन के सुनाती ,सरसराती पत्तियाँ
गुह्य पुष्पक, दिव्य अक्षय,प्लक्ष इसके नाम हैं मूल में इसके सुशोभित, देवता के धाम हैं स्वास्थ्यवर्द्धक ,व्याधि रोधक,बूटियों की खान है पूजते हैं लोग इसको ,संस्कृति का मान है
चेतना की ग्रंथियों को, आज भी वो खोलता झुर्रियों में आज उसका, आत्मदर्पण बोलता शाख पर जिसके लटकती ,आस्था की हांडियाँ झुरझुरी वो ले रही हैं, देख अब कुल्हाड़ियाँ
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6 |
डॉ० प्राची सिंह जी |
गीतिका
गाय ब्राह्मण देवता सम पूज्य पीपल वृक्ष है . विष्णु ब्रह्मा और शिव का रूप यह प्रत्यक्ष है रोपना परिपालना लाये सदा सुख सम्पदा वंदना दे स्वर्ग सुख है मोक्षदाई सर्वदा
बुद्ध का निर्वाण क्षण चलपत्र की छाया तले आर्य संस्कृति भाव-वंदन राह श्रद्धावत फले वायु शीतल व्याप्त करती चित्त में एकाग्रता श्वास थिर उर प्रक्षलन कर, दे सदा सद्पात्रता
जड़ तना पत्ते सभी औषध गुणों से व्याप्त हैं ऋषिजनों की मान्यता यह प्राण हित सम्प्राप्त हैं यक्ष प्रेतों और भूतों को यहीं आश्रय मिले भाव-तर्पण पुण्यकारी वंशक्रम फूले फले
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7 |
आदरणीय सत्यनारायण सिंह जी |
उल्लाला जग शुभ पीपल मानता, देव वृक्ष से जानता । |
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8 |
आदरणीय केवल प्रसाद जी |
गीतिका ज्ञान की पहचान में ब्रह्मा सरीखा वृक्ष है।
पूर्ण हो हर आचमन पीपल यहॉे भगवान है। सार्वभौमिक सत्य का उपहार सा प्रतिमान है।।
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9 |
आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला जी |
उल्लाला पीपल की हर चीज ही, आती सब के काम है | टहनी पत्ती फूल हो, मिलते सबके दाम है ||
पेड़ प्रदुषण मुक्त करे, हरते सबकी पीर को | पशु पक्षी निवास करे, छाँव मिले श्रमवीर को ||
बिना शुल्क औषध मिले, कुदरत का ही खेल है दादी से नुस्खे मिले, और दवा सब फेल है ||
पीपल जैसे प्राण है, पूजे इसको जानकी | मिला बुद्ध को ज्ञान है, ज्योत जले है ज्ञान की
पीपल समझो देवता, जात नहीं यह देखता | सभी वर्ग है पूजता, एक आँख से टेरता ||
द्वितीय प्रस्तुति - उल्लाला पीपल के सान्निध्य में, धर्म कर्म व्रत कामना सन्यासी रख भावना, करते रहते साधना ||
बिन पीपल के धाम कहाँ, राम मिले न श्याम जहाँ राही को विश्राम जहाँ, पीपल की हो छाँव वहाँ ||
शिव का वास पीपल में, बने बाँसुरी कृष्ण की | प्रेम पत्र पीपल लिखे, तब शहनाई जश्न की ||
पीपल पूनम देखले, अबूझ यही शुभ मुहरत | शुभ कामो की रेखले, मुहरत की हो न जरुरत ||
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10 |
आदरणीया सरिता भाटिया जी |
उल्लाला पीपल की छाया तले बचपन औ यौवन पले
पीपल शुभ जानें सभी, देता दुख ना है कभी
पीपल में अवतार है, पीपल में संस्कार है
जीता सालों साल है , गुणकारी निज छाल है |
देवों का यह वास है जन्मों का अहसास है
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11 |
आदरणीय रमेश कुमार चौहान जी |
गीतिका छंद
उल्लाला छंद |
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आदरणीय अविनाश बागडे जी |
गीतिका वृक्ष पीपल छाँव में तो गुण बड़े अनमोल हैं खुद के मुख से क्या कहूँ ये बड़ों के बोल है छाँव इसकी है घनी सी गाँव की पहचान है साँस लेने के लिए तो ये खड़ा वरदान है " . क्या बताएं क्या गलत या सही क्या बात है
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13 |
आदरणीया कल्पना रामानी जी |
गीतिका गाँव के आँगन खड़ा ये देव पीपल शान से। पूजते हैं हम इसे, हर दिन बड़े सम्मान से। तप्त तन मन तृप्त करता, शीत छाया से सदा। क्रूर-किरणें रोक लेता, सब्ज़ पत्तों से लदा।
प्राणियों का प्राण-रक्षक, प्राणविधु है बाँटता। रोप पावनता मनस के, धूर्त कंटक छाँटता। गाँव वालों पर सदा, उपकार इसने हैं किए। सौख्य-समृद्धि स्रोत बन, वरदान सबको हैं दिये।
सैकड़ों व्याकुल परिंदे, आसरा पाते यहाँ। सींचता यह इन गुलों को, बन दयामय बागबाँ। पेड़ जीवन से भरे जो, पीर जन-जन की हरें। है हमारा फर्ज़ हम इनकी सदा रक्षा करें।
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14 |
आदरणीया माहेश्वरी कनेरी जी |
गीतिका हे तरुवर श्रेष्ठ पीपल, प्राकृतिक वरदान हो सकल जग प्राणदाता सद् गुणों की खान हो सभ्यता संस्कृति गहन आस्था अनुदान है पूजते सर्वत्र श्रद्धा से धर्म निष्ठा मान है
है धन्य वसुंधरा भी रस भरा सुगान है है घरोहर पूर्वजों का पीढियों का मान है सर्वव्यापी सर्वत्र हो चेतना की खान हो हे तरुवर श्रेष्ठ तुम देश की पहचान हो |
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भाई शिज्जू जी,
आपकी सकारात्मक टिप्पणी से मंच और मंच के सदस्यों के प्रयासों को समर्थन मिला है. हृदय से धन्यवाद कह रहा हूँ.
जिनके प्रयासों को ध्यान में रख कर ऐसे आयोजनों की परिकल्पना हुई है वे सभी लोग इस मंच के या तो सदस्य हैं, या आने वाले दिनों में सदस्य बनने वाले हैं !
यही कारण है कि इन आयोजनों का प्रारूप इतने दिनों में ऑनलाइन कार्यशाला का होता चला गया है. जबकि ऐसी अवधारणा विरले ही किसी मंच के होने के पीछे है. शायद ही नेट का, या भौतिक भी, कोई मंच प्रति मास तीन विभिन्न काव्य विधाओं पर इस तरह से सामुहिक कार्यशाला चलाता है.
जब ओबीओ पर ये आयोजन प्रारम्भ किये गये थे तब तो शायद कोई मंच ऐसी कार्यशालाओं के साथ सामने नहीं आया था. अलबत्ता, एक-दो मंच ग़ज़लों को लेकर अवश्य प्रयासरत थे. वर्ना, जहाँ भी कुछ ज्ञानवर्द्धक बातें मिलती थीं, वो आलेखों के रूप में ही उपलब्ध थीं. संवाद स्थापित कर आयोजन करना उस समय तक ऐसे प्रचलित नहीं हुआ था. और, इण्टरऐक्टिव आयोजन, जैसे कि ओबीओ पर शुरु हुए, ऐसे आयोजन और इनका कार्यशाला प्रारूप तो मेरी दृष्टि में पूरे नेट जगत में कहीं नहीं चल रहा था.
आयोजनों के इस प्रारूप के कारण ही रचनाकारों के अभ्यासों को गति मिली. और हर तरह के प्रश्नों का समाधान सीधे-सीधे मिलने लगा. जबकि इस मंच पर उस्ताद या गुरु कह कर सर्वमान्य और प्रतिष्ठित व्यक्ति कोई नहीं था. एक ज़ुनून-सा तारी था सक्रिय सदस्यों के मन में, जिसके तहत सभी गंभीर थे. सभी एक-दूसरे से अपने-अपने ढंग से सीखने लगे. गलतियाँ करना हास्यास्पद नहीं माना जाता था बल्कि उन्हें जान लेने के बाद उनको न दुहराना या सचेत रहना एक ज़िद की तरह अपनाया जाने लगा. सीखने-सिखाने की अवधारणा के तहत एक सकारात्मक प्रक्रिया प्रारम्भ हो गयी. रचनाओं पर मात्र वाह-वाही टाइप के कोमेण्ट्स, वह भी जानकारों या सीखे हुओं द्वारा, को हतोत्साहित किया गया, या खुले शब्दों में नकारा गया. यही क्रम आज भी जारी रखने का प्रयास बना हुआ है. भले ही, इस मंच पर आकर सीखे हुए आज के कई ’विद्वान’ अपने को इस प्रक्रिया से ऊपर समझने लगे हैं. परन्तु, ऐसा तो हर मंच पर, हर समय और हर दौर में होता रहा है.
भाईजी, यदि हम जैसों के शुरुआती दौर में भी इस मंच को ऐसे महानुभाव मिले होते जो सीखने-सिखाने को समय-बेकार करना समझते होते तो, सच मानिये, आपके सामने इस मंच पर कोई नहीं दिखता. न आदरणीय योगराजभाईजी, न तिलकराज कपूर साहब, न वीनस केसरी, न प्राचीजी, न गणेशभाई, न वे कई-कई-कई-कई लोग, जो आज बाहर की संस्थाओं में रम गये हैं या बाहर के मंचों पर बहुत बड़े नाम बन कर प्रतिष्ठित हो गये हैं, या, रमने और प्रतिष्ठित होने की क़वायद और जद्दोजहद में लगे हैं. यह तो प्रकृति की व्यवस्था है कि ज्ञान एक जगह बना नहीं रहता, बल्कि फैलता जाता है. बस एक ही अपेक्षा हुआ करती है, कि सीखने के बाद किसी सदस्य के मन में अहमन्यता न व्यापे, कृतघ्नता न घर कर जाये. मंचको कोई कुछ दे नहीं सकता, तो मंच से कन्नी काट कर, आँखें चुरा कर भी कोई न निकलने लगे. मंच को चोर मुँह से कोई लानत न भेजे. यही अपेक्षा है.
ऐसे कुछ यदि हैं भी, तो उनसे यह मंच और क्या कह सकता है, सिवा इसके, कि -
वक़्त क्या.. कर दूँ निछावर ज़िन्दग़ी
पर तुम्हें तो सिर्फ़ कंधा चाहिये ॥
आज किन्हीं महानुभाव को नये या नवोदित रचनाकारों की रचनाओं पर समय लगाना या समय बिताना यदि समय खराब करना या किसी स्तर पर छुट-भइयों का पाण्डित्य-प्रदर्शन लगता है तो यह सब उनकी व्यक्तिगत सोच-समझ को ही बताता है.
//सिर्फ भाग लेने के लिये रचना प्रस्तुत करना कई बार पाठकों को मायूस कर जाता है, ओबीओ ऐसा मंच है जहाँ ऐसे आयोजन में स्तरीय रचना की अपेक्षा रहती है //
भाईजी, मेरे कहे उपरोक्त पाराग्राफ़ों के आलोक में आपकी ये बातें और उनकी तथ्यात्मकता तनिक सुधार चाहती हैं. यदि सभी रचनायें तथाकथित उच्च स्तर की ही होंगीं या ऐसी उच्च स्तरीय रचनाओं को ही आयोजनों में स्थान मिलने लगे, तो सीखने वाले या अभ्यास करने वाले कहाँ जायेंगे ?
यह तो कार्यशाला है न ? कार्यशालायें अभ्यास के अंतर्गत भूल करने के लिए ही होती हैं. हाँ, भूल करने में और ज़िन्दा मक्खी निगलने में अंतर होता है, यह तो आप भी जानते होंगे.
हम आपस में ज़िन्दा मक्खी निगलने वालों को बार-बार ताक़ीद करें कि ऐसा करना समय-बरबादी है.
शुभ-शुभ
छान्दोत्सव ३८ अंक की सफलता के लिए सभी को हार्दिक बधाई|सभी रचनाओं के संकलन हेतु आ० सौरभ जी और प्राची जी बधाई के पात्र हैं |इस आयोजन ने जहाँ एक तथ्य परक विषय पीपल देकर इस देवतुल्य वृक्ष के गुणों के प्रति लोगों का ध्यानाकर्षण किया है उसी और दो खूबसूरत छंदों की भी जानकारी उपलब्ध कराई है जिसका लिंक पहली पोस्ट पर दिया गया था आयोजन में भाग लेने वालों को उस लिंक को खोल कर छंदों के विषय में पूर्ण जानकारी लेनी चाहिए तब रचना को आयोजन में पोस्ट करना चाहिए बाकि फिर भी त्रुटी होने पर आयोजन के मध्य ही सुधार की गुंजाइश रहती है फिर भी कुछ रचनाकार उन लिंक को नजरअंदाज करते नज़र आये, खैर वो भी धीरे धीरे समझ जायेंगे और अगलीबार आयोजन में कमर कसके आयेंगे और इस प्रयोगशाला को समृद्द करेंगे ऐसी मेरी शुभकामनायें हैं ,प्रतिभागिता करने वाले सभी रचनाकारों को मेरी हार्दिक बधाई .
आदरणीया राजेश कुमारीजी, आपकी प्रतिभागिता के लिए सादर धन्यवाद.
आपकी कही गयी बातों के लिए पुनः धन्यवाद. आपने दुरुस्त फ़रमाया है, आदरणीया, कि आयोजन में प्रदत्त छन्दों के विधानों से अवगत होने के लिए लिंक तो भूमिका में दिये ही जाते हैं. अब कोई बिना आयोजन की भूमिका पढ़े, बिना तैयारी के आयेगा तो दिक्कत तो अवश्य होगी.
सादर
आदरनीय सौरभ भाई , चित्र से काव्य तक महोत्सव के सफल संचालन के लिये आपको बधाइयाँ । आदरणीया प्राची जी और आ. अरुण निगम भाई का सहयोग के लिये अभिनंदन करता हूँ ।
आदरनीय सौरभ भाई , मै छंद रचना में अनुभव हीनता , और शब्द भंडार की कमी के कारण अपनी गीतिका रचना मे सुधार नही कर पाया , मै दुखी भी हूँ और शर्मिन्दा भी , लेकिन प्रयास ज़ारी है , आशा है आगे कुछ अच्छा कर पाऊँगा ।
आदरणीय गिरिराज भाईजी,
आप एक अत्यंत गंभीर रचनाकार और सतत अभ्यासी हैं. इस मंच को मिली उपलब्धियों में आपका महती योगदान रहा है. आपकी सीखने की क्षमता इस मंच के नये हस्ताक्षरों के लिए उदाहरण सदृश है. गृह-निर्माण कार्य के कारण आप जिस तरह के समयाभाव से जूझ रहे हैं, उसके बावज़ूद मंच पर और इसके आयोजनों में आपकी अनवरत प्रतिभागिता इस मंच के प्रति आपके मन में बसे सम्मान और आदर का प्रतीक ही है.
आप अभ्यास प्रक्रिया को जिस गंभीरता से लेते हैं, वो दिन दूर नहीं कि प्रदत्त छन्दों में आप मान्य रचनाएँ प्रस्तुत कर सकेंगे.
सादर धन्यवाद आदरणीय
आयोजन में गीतिका और उल्लाला छंद की रसधार बही है. आदरणीया प्राचीजी का ये छंद मुग्ध कर गया-
बुद्ध का निर्वाण क्षण चलपत्र की छाया तले
आर्य संस्कृति भाव-वंदन राह श्रद्धावत फले
वायु शीतल व्याप्त करती चित्त में एकाग्रता
श्वास थिर उर प्रक्षलन कर, दे सदा सद्पात्रता
आवश्यक सूचना:-
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