पिछले कुछ दिनों से मेरे मन में एक प्रश्न कौंध रहा है सही और गलत के परिभाषा को लेकर. सही क्या है और गलत क्या है इसके अतरिक्त कुछ सोच नहीं पा रहा हूँ. कभी तर्क साथ छोड़ रहा है तो कभी बुद्धि सौतेला व्यवहार क़र रही है.बुद्धि और तर्क दोनों का ताल-मेल विगत कुछ दिनों से असंतुलित है. क्या कहुँ मेरा मस्तिष्क दो परस्पर विपरीत दिशा में काम क़र रहा है, एक वाला सही खोजने में जुटा है वहीँ दूसरा न जाने कहाँ से खोज-खोज क़र गलतियाँ ला रहा है. दिमाग की बत्ती जो पहले थोड़ी सांस भर रही थी अब बुझने के कगार पे है. भ्रम से उपजे भावों ने मुझे विवेक शून्य बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है.
मैंने बुद्धिजीवियों से संपर्क किया समाधान की प्रत्याशा लिए ; पर ऐसे कठिन उत्तर मिले कि उन्हें न समझना ही मुझे बेहतर लगा . मैं तो समाधान कि आस लिए गया था पर ज्ञान की ऐसी गठरी मेरे ऊपर फेंकी गयी कि मैं संभाल नहीं पाया. क्या करूँ मेरे समझने की क्षमता बड़ी सीमित है.बढ़ाने का प्रयत्न क़र रहा हूँ पर समझ मुझसे दूर भाग रही है.
ऐसा अक्सर होता है जब हम किसी बुद्धिमान व्यक्ति से अपने समस्या का समाधान चाहते हैं तो एक हज़ार सलाह और मशवरे मुफ्त में मिल जाते हैं जो कहीं से भी प्रासंगिक नहीं कहे जा सकते, पर ज्ञानियों को समझाए कौन? उनका कहना जनता के लिए'' वेद-वाक्य''. वैसे भी ज्ञानियों की हाँ में हाँ मिलाने से हम निरर्थक बहस से बच जाते हैं. एक व्यथित व्यक्ति बहस करके और दुःख भला क्यों मोल ले?
मैंने अपने बड़ों से सुन रखा है कि समय के पास हर प्रश्न का समाधान होता है मैं भी प्रतीक्षा में हूँ कि कब मेरा समय आये और लगे हाथ कुछ सवाल करूँ ''समय'' से. समय के पास समय रहा तो जरूर बतायेगा अन्यथा ठेंगा दिखा के निकल लेगा.
मेरे एक वरिष्ठ मित्र हैं उन्होंने मुझे समझाया जिसे मैं अक्षरशः नीचे लिख रहा हूँ. इनका जवाब मुझे काफी अच्छा लगा -'' यूँ तो सही कभी-कभी गलत लगता है और गलत कभी-कभी सही लगता है, सब समय का रचा चक्र है और इस चक्र को जो छीनी-हथौड़ी से गढ़ने बैठ जाते हैं उनका बेडा पार हो जाता है और जिन्हे छीनी-हथौड़ी से परहेज होता है वो किनारे पे चक्कर मारते हैं कि इस बार चक्र पर चढ़ जाऊँगा पर अफ़सोस औधें मुंह गिरते हैं. कूदने वाले को गलत नहीं कहा जा सकता क्योंकि उतावलापन इंसानी फितरत है और फितरत की बात ही निराली है.''
इतनी बातें सुन कर मेरे दिमाग की बत्ती तो गुल हो गयी जलाने की कोशिश क़र रहा हूँ पर हवा तेज़ है, बत्ती बुझ जा रही है, आप जलाये रखिये! उम्मीद है फिर मिलेंगे, शायद तब तक मेरे सवाल का जवाब मुझे मिल जाए...http://www.omjaijagdeesh.blogspot.com
(published on my blog)
ये लोक तंत्र है
कहने के लिए
हम चुनते हैं
अपना प्रतिनिधि
वोट देकर
संविधान द्वारा स्थापित
प्रक्रिया
का सम्मान कर कर
लोकतंत्र की गरिमा
का
मन रख,
पर मिलता है हमें
धोखा
सरकार बने
फिर कैसी जनता
कैसा जनतंत्र?
संविधान हमारा
छत है
धुप, बारिश, पानी
सबसे बचाना इसका
काम है
पर अब
लगता है की
इस छतरी में छेद है.
जिसका पैसा
उसका कानून
और
फैसले भी उसके
पक्ष में.
क्या यही अवधारणा…
Posted on April 21, 2014 at 12:44am — 5 Comments
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