ऋचाओं से पूर्व
उन दिनों उत्तराखण्ड का एक बहुत बड़ा भाग घनें जंगलों से आवृत्त था । यदा - कदा घने जंगलों को काट कर छोटी -मोटी बस्तियां बन गयी थीं । जहां कृषि ,फल संचयन और आखेट के माध्यम से जीवन निर्वाह होता था । शरीर आच्छादन के लिए कुछ विकसित बस्तियाँ रेशे दार पौधे उगाकर उनके लचकीले रेशों का विशेष संगुफन करके वक्ष और अधोभाग को ढकने लग गयी थीं । पर बहुत से अपेक्षाकृत अविकसित कबीले अभी तक चर्म वस्त्र ,पेड़ों की छाल या बड़े -बड़े पत्तों के जुड़ाव से ही शरीर को ढक लेने की जरूरत पूरा करते थे । इस प्रागैतिहासिक काल में मनुष्य की आवश्यकतायें थोड़ी थीं और प्रकृति में अपार विपुलता थी । कन्दमूल फल ही इतनें प्राचूर्य में थे कि सहज में ही क्षुधा मिटायी जा सकती थी । साथ ही मांसाहारी प्रवत्ति भी अभी तक अधिकाँश नर -नारियों की मूल प्रवृत्तियों में रच -बस रही थी । गुफाओं से निकलकर उन्हीं की नक़ल पर पहले घरौन्दे तैयार हुये थे । भिन्न -भिन्न प्रकार की मिट्टी ,प्रस्तर खण्ड ,शिलायें और छोटी -बड़ी कंकङियाँ सहज ही उपलब्ध थीं । लकड़ी का प्राचूर्य था ही । आग की खोज और उसे निरन्तर बनाये रखने की तरकीब पकड़ में आ गयी थी और इस कारण न केवल वन्य पशुओं से रक्षा हो रही थी बल्कि पके हुये या भुने हुए सुस्वाद मांस या अन्न का आनन्द भी नर -नारियों के जीवन में उल्लास भरने लगा था । अभी तक अधिकाँश नर -नारी जीवन में जो मिल रहा था उससे संतुष्ट थे । नर -नारी का मिलन सहज रूप से सँभव था पर परिवार की मर्यादायें निश्चित होने लगी थीं । पुत्र -पुत्री ,बहन और भाई के संबन्ध पशुता के धरातल से उठकर प्यार और लगाव के नये भाव श्रोतों से जुड़नें लगे थे । माता की महत्ता सर्वोपरि थी पर पिता का स्थान भी परिवार मर्यादा की रक्षा के कारण सुनिश्चित होने लगा था । जाति विभाजन अभी बहुत दूर की बात थी पर कबीलायी वफादारी रंग पकड़ती जा रही थी । रूप रँग ,नाक नक्श ,,शरीर की लम्बाई ,चौड़ाई ,मोटाई सभी में आश्चर्यजनक विभिन्नता होने के कारण श्रेष्ठता और हीनता का भाव मन में आना शुरू हो गया था । प्रारम्भ में पशु शक्ति ही श्रेष्ठता की निर्णायक थी पर समय पाकर धीरे -धीरे दिमाग की सोच से निकली तरकीबें पशु शक्ति से ऊपर का स्थान पाने लगी थीं । आदिम टेक्नॉलॉजी नें वनमानुष के शारीरिक पौरष को कड़ी चुनौती दी और धीरे -धीरे उसे अपना गुलाम बना लिया । पशुओं का पालन प्रारम्भ हो गया था पर उन्हें अधिकतर दूध ,मांस ,चर्म ,केश राशि या हड्डियों के लिए पाला जाता था । वृषभ कृषि प्रयोग में प्रारम्भिक दौर से गुजर रहे थे क्योंकि सम्भवतः नुकीली लकड़ी या हड्डियों से मिट्टी की उलट -पुलट में उनकी सहायता ली जाती रही होगी । नुकीले धातु का हल तो बहुत बाद की बात है । यदा -कदा अश्वों के झुण्डों में से एकाध अश्व पकड़ लिया जाता था पर कुशल अश्वारोहण अभी तक गति नहीं पा सका था । इस प्रागैतिहासिक सभ्यता में आधुनिक जीवन की रंच मात्र भी झलक न थी पर एक सबसे बड़ी बात जो वहां थी उसकी एक मात्र झलक आज के आधुनिक जीवन में नहीं दिखायी पड़ती । वह बात थी अपने सीमित साधनों में प्रकृति की गोद में पलनें वाला निश्छल जीवन जो एक प्रकार से निष्क्रिय सन्तोष से भरपूर था ।
इस बात को लेकर इतिहासकारों में इतनें बड़े -बड़े मतभेद हैं कि उन मतभेदों पर चर्चा करना एक वृहद ग्रन्थ में भी संभव नहीं है । यह बात है भारत में आर्यों की उपस्थिति के बारे में । वह कहाँ से आये ,कब आये और कैसे आये ?वह भारत में ही थे ,पंच नद प्रान्त में थे ,कश्मीर या तिब्बत में थे ?वे कबीले में बटे थे ,या उनकी समाज व्यवस्था प्रजातीय विस्तार पा सकी थी ? ऊपर की यह सभी बातें लम्बे विवादों को जन्म दे चुकी हैं और इन विवादों के घेरे में पड़नें के लिये इस कहानीकार को कोई उत्सुकता नहीं है । इस कहानी का प्रारम्भ तो कल्प ग्राम बस्ती के एक छोटे से घरौन्दे नुमा घर से होता है जहाँ कुशबुद्धि नामक बालक जन्म लिया । बालक के माता -पिता काले थे या गोरे यह नहीं कहा जा सकता उनमें से कौन आर्य जाति का था कौन नाग जाति का । क्या पता माता द्रविण हो या पिता मंगोल या फिर उनमें से एक अफ्रीकन हो या दूसरा आस्ट्रेलियायी । हो सकता है दोनों के दोनों यूरोप के सैक्शन जूट या नार्मन प्रजातियों से निकलकर आये हों । कहानीकार इन सब बातों के चक्कर में नहीं पड़ना चाहता । उसका ज्ञान भी इतना अपार नहीं है कि वह इन विवादों की सच्चायी को परख सके साथ ही वह इस बात की भी आवश्यकता नहीं समझता कि इन विवादों का उत्तर पा जाने से मानव समस्याओं का कोई हल निकल आयेगा ।
तो कुशबुद्धि बड़ा होने लगा कुछ ऐसी बात थी कि कुशबुद्धि और बालकों की अपेक्षा प्रकृति की घटनाओं पर अधिक गहराई से ध्यान देता था । ऐसा क्यों था इस पर निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है हो सकता है उसनें जो जीन्स पाये थे उसमें कुछ विशेषता रही हो या प्रकृति नें उसके द्वारा मानव समाज में एक नया परिवर्तन ला देने की ठानी हो । किशोर होते होते कुशबुद्धि अपनें पुष्ट शरीर और मजबूत पैरों के बल पर घने जंगलों को पार दूसरी बस्तियों में अपना सम्बन्ध बढ़ाने लगा । नुकीली लकड़ियों की तर्ज पर उसनें लम्बी चौड़ी मजबूत हड्डियों के सिरों को पत्थर पर रगड़ रगड़ कर इतना नुकीला बना लिया था कि उसकी एक चोट से बड़े बड़े जंगली जानवर घायल हो जाँय । कंधे पर इन हड्डी के भालों को रखकर और हाँथ में लकड़ी की तीन चार नोक वाली होलें लेकर वह निडर जंगलों के बीच से गुजर जाता और दूर दूर की बस्तियों में अपनी बस्ती की बातें बताता और उनकी बस्ती की बातें सुनाता । कुशबुद्धि की आवाज बहुत सुन्दर थी और वह अजीब ढंग से गुनगुनाकर प्रसन्न होनें पर न जाने क्या गुनगुनाया करता था । समय तक भाषा का कोई सार्वभौम विकसित रूप नहीं हो पाया था पर कुछ मिले -जुले शब्दों और शब्दों के उतार -चढ़ाव से तथा आवाज की ऊँचाई -निचाई से मन के भीतरी भाव जाहिर हो जाते थे । तरुणाई आते -आते कुश बुद्धि नें लाल ,काली ,गेरुई और पीली मिट्टी से पहले तो अपनें घरौन्दे की दीवालों पर फिर आस -पास की चट्टानों पशु -पक्षियों और पेंड़ -पौधों की रेखाकृतियाँ खींचनी शुरू कर दीं । रेंगते सांप को देखकर या उछलते हिरन को देखकर उसके मन पर एक ऐसी तस्वीर छप जाती थी जिसे वह अपनें विश्राम के समय दीवालों ,पत्थरों ,और कभी -कभी साफ़ सुथरी भूमि पर चित्रित कर अद्द्भुत आनन्द का अनुभव करने लगा । यों तो भारत की धरती विशेषतः उत्तराखण्ड की धरती पानी के अभाव में कभी लम्बे काल तक नहीं तरसी है पर इतिहास पूर्व लम्बे काल में ऐसे समय भी आते थे जब पानी का अभाव खलनें लगता था । ,अधिक गर्मी के दिनों में वर्षा न होनें पर यह अभाव अधिक दुःख दायी हो जाता था । कुश बुद्धि के मन एक दिन यह बात आयी कि पास की पडी खाली जमीन जो एक ऊँचे टीले के रूप में थी की मिट्टी को खोदकर पशुओं ,पक्षियों और जंगली जानवरों की शक्लें बनायी जायेँ । रंग बिरंगी मिट्टी से रेखाकृतियाँ बनानें में वह माहिर हो ही चुका था टीले की मिट्टी खोद -खोद कर उसनें उल्टे -सीधे पशु ,पक्षियों और जंगली जानवरों ,पेंड़ -पौधों और यहां तक कि अपनी बस्ती के लोगों की आकृतियाँ भी बनानी शुरू की कई लोग उसकी इस खप्त से नाराज थे पर कई नवयुवक क्षुधापूर्ति के बाद उसके इस काम में सहयोग देने लगे । धीरे -धीरे टीले की सारी मिट्टी खुद कर अजीबो गरीब शक्ल में भिन्न -भिन्न रूपों में ढल गयी । बीच में एक गहरा तालाब बन गया और उसके आस -पास मिट्टी के बनें भूंडे पशु -पक्षी और जानवरों के ढेर लग गये । शीत ऋतु में बस्ती में निरन्तर जलने वाली आग में किसी मनचले नें रात में कुछ मूर्तियां उठा कर फेंक दीं । प्रकाश होने पर कुश बुद्धि को जब इस बात का पता चला तो उसने वह मूर्तियां लकड़ी के एक लम्बे कुन्दे से गीली मिट्टी से बनी उन रेखाकृतियों को निकाला । वह आकृतियाँ काली तो हो गयी थीं पर कुछ अधिक मजबूत भी दीख पड़ीं । कुश बुद्धि नें एक नयी समझ पा ली । गीली मिट्टी से बनी आकृतियों को सुखा लिया जाय और फिर उन्हें यत्न के साथ धीमी आग में पकाया जाय तो वे मजबूत और टिकाऊ हो जायेंगी । फिर उन्हें अलग अलग मिट्टी के रंगों में रंग दिया जाय और उनपर चमकीले लसदार माटी की पालिश कर दी जाय तो वह और सुन्दर दिखेंगीं । बस अब क्या था कुश बुद्धि तालाब के आस -पास इसी काम में लग गया । तालाब के आस पास मूर्तियों का ढेर लग गया । तेज गर्मी में वे सूख गयीं और फिर कुश बुद्धि नें धीमी आग में पकाने की तरकीब खोज निकाली उसकी मूर्तियों की कहानी दूर दूर तक बस्तियों में फ़ैल गयी । कई जंगल के टुकड़ों के पार एक बस्ती थी जिसका नाम धोरी कोण्डा था । वहां भी पट्टू नाम का एक माटी के बर्तन पकाने वाला गढ़निया था उससे अधिक उसकी पत्नी बानुषी पट्टू से अधिक इस काम में होशियार थी । बानुषी की तरुणाई के द्वार पर पहुँच रही लड़की का नाम बनाली था । कुदरत नें न केवल उसे सुन्दर बनाया था बल्कि उसके हाथों में प्रकृति के चित्रों को उकेरने की अद्धभुत क्षमता भी दी थी । कोण्डा गाँव में कुशबुद्धि की मूर्तियों की चर्चा जा पहुँची और एक दिन बनाली अपनी ढेर सारी सहेलियों के साथ कल्पग्राम के उत्तरी कोने पर स्थित उस तालाब के पास पहुँच गयी जिसके चारो ओर पकी मूर्तियों के ढेर लगे थे और जिन पर कुछ चित्र खिंचे हुये थे । कुशबुद्धि और उसके साथी तरुणों नें उन तरुणियों का स्वागत किया । मिलना -जुलना प्रारम्भ हो गया और प्रशसंकों की संख्या बढ़ने लगी । एक दिन कुश बुद्धि नें एक नारी मूर्ती गढ़ी ,बनाली भी उस दिन अपनी सहेलियों के साथ आयी थी । उसनें कुश बुद्धि की उस मूर्ति को देखा । पास में पडी लोहे की एक पतली नोकदार कूँची उठा ली फिर उसनें उस मूर्ति के गले ,भुजाओं और कलाइयों में आभूषणो के अत्यन्त सुन्दर चित्र खींच दिये । कान के कोरों पर भी फलाकृतियों वाले लम्ब लटका दिये । फिर उसने एक दूसरी कुछ मोटी नोक वाली पत्थर की छेनी उठायी, उसकी मदद से उसने उस नारी मूर्ती के सिर पर बने बालों को एक नया आकार देकर सिर के पीछे की ओर एक उठा हुआ जूड़ा बना दिया । नाक ,आँखों और होठों पर भी हल्के परिवर्तन किये । कुश बुद्धि बैठे बैठे देखता रहा और बनाली की कला की श्रेष्ठता को मन ही मन सराहता रहा। बनाली नें कहा ,"सखा कलाकार इस मूर्ती को अब धीमी आग में पकाकर पक्का कर लेना । मैं कुछ दिनों बाद फिर अपनी सहेलियों के साथ आऊंगीं तब विभिन्न रंगों से इसका चमकदार श्रृंगार करूँगीं । साथ ही मैं अपने साथ अपनी माँ के हाँथों से बनायी हुयी एक युवक की मूर्ति भी अपनें साथ लेती आऊँगी जो मुझे अत्यन्त प्यारी लगती है । मुझे तो उस मूर्ति में तुम ही झलकते दिखायी पड़ते हो । "कुश बुद्धि मुस्कराकर बनाली की ओर कृतज्ञ दृष्टि से देखता रहा फिर बोला ," हे चितेरी, सखी प्रतीक्षा का प्रत्येक दिन मुझे कथा के शूलों सा बेधेगा ,शीघ्र ही आना अपनी बस्ती की उलझनों में खो मत जाना । " कोण्डा ग्राम वैसे भी आपसी कलह में डूबा रहता है । बनाली और उसकी सहेलियाँ वापस चली गयीं ।
दिन पर दिन बीतते गये पर बनाली वापस न आयी । कुश बुद्धि पहले तो जीवन उल्लास के बोल स्वर वद्ध करता था और अब किसी अन्तर पीड़ा को शब्दों में पिरोने लगा । उसे लगा कि संगीत उल्लास ही नहीं वेदना को भी अत्यन्त सशक्त रूप से व्यक्त कर सकता है । स्वर की महत्ता के साथ -साथ उसे शब्दों की महत्ता का भी ज्ञान होने लगा । शब्दों में पिरोया हुआ स्वर आदिम कविता के रूप में प्रवाहित हो पड़ा । गर्मी के बाद बरसात आयी आस -पास के जँगल तृण लताओं और वनस्पतियों से भर गये । रास्ता चलना दूभर हो गया, कुश बुद्धि का तालाब भी पानी से भर गया । उसके आस -पास की रखी हुयी मूर्तियां उसे अपनी कला को और निखारने के लिये बुलाती जान पड़ती थीं । पर कुश बुद्धि को अब एकान्त प्रिय हो गया । उसने तालाब के पास एक विशाल बट वृक्ष की छाँह में छोटे मझोले प्रस्तर खण्डों को सजाकर दीवारों पर एक चौखटा खड़ा कर लिया । उनके ऊपर सीधी आड़ी लकड़ियाँ रखकर उसने खर ,पतवार ,सरकण्डे और पादप पत्रों का एक आच्छादन दे दिया । द्वार पर लकड़ी के खम्भे बनाकर उनके ऊपर भिन्न -भिन्न पुष्पो की लतरें लगा दी अन्दर साफ़ सुथरी शिलाओं को कलात्मक ढंग से लगाकर वह वहीं बैठने और सोने लगा । इस विश्राम स्थल पर उसके पास जो सबसे कीमती धरोहर थी वह थी बनाली के द्वारा आभूषणों के द्वारा सजायी गयी वह नारी मूर्ति जिसे उसने पकाकर प्रस्तर दीवार के एक परख में प्रतिष्ठित कर दिया था । बरसात समाप्ति पर आ गयी लगा अब सब कुछ साफ़ सुथरा हो जायेगा पर प्रकृति की लीला को कौन जाने ? उस दिन सूरज डूबने से कुछ पहले उसे एक नारी आकृति अपनी ओर आती दिखायी पडी । उसने अपनी आँखों को मला कहीं कोई भ्रम तो नहीं है यह नारी आकृति तो अकेली है साथ में सखियों का कोई वृंद तो है ही नहीं । कौन हो सकता है ?अरे यह तो बनाली है कुश बुद्धि के हृदय में उल्लास का समुद्र लहलहा उठा दौड़ कर बनाली के पास जा पहुँचा हर्ष के आवेग में मुँह से कुछ शब्द निकले । बनाली उसके मन का भाव समझ गयी । हाथ अपनें हाथ में लेकर बोली आओ चलें वटराज की छाँव में बैठें । तुमनें सूना ही होगा कि हमारी बस्ती और नाककोण्डा बस्ती में कबीलायी लड़ाई चल रही है । जंगलों के सारे रास्ते बन्द कर दिये गये हैं ,कितनें दिनों से तुम्हारे पास आने का जुगाड़ कर रही थी ,आज सुबह अँधेरे से ही चल कर जंगल की न जाने कितनी भूल -भुल्लैयों से होकर तुम तक पहुँची हूँ । लो माँ के द्वारा बनायी हुई और मेरे द्वारा सजायी हुयी यह युवक मूर्ति सँभालो । तुम तो मेरे पास नहीं थे पर इस मूर्ति के माध्यम से मैं सदैव तुम्हारे पास ही तो थी ।
सहसा आसमान में बादल छाने लग गये, दूर से बिजली की कौंध दिखायी पडी और फिर भिन्न भिन्न मूर्तियों के आकार वाले भूरे ,काले बादल क्षितिज से उठकर नीलाभ विस्तार में फैलने लगे बादल का कोई टुकड़ा मृगशावक सा उछलता दिखायी पड़ता था । तो कहीं -कहीं गजराज अपनीं शुण्ड उठाये चिघ्घार रहे थे । लगभग सभी वन्य पशु कोई न कोई वाष्पीय आकृति बना कर गगन में अठखेलियां कर रहे थे । ललित कलाओं का प्रेमी यह तरुण युग्म जलद खण्डों की इस मनोहारी लीला को उत्फुल भाव से निरख रहा था । बनाली पुष्प गुच्छों से बनी और लताओं से सधी एक चोली से अपना वक्ष ढके हुये थी । बनैली कपास और बन्य पौधों के रेशों से कूट -पीट और प्रस्तरित कर एक वन्य सुवासित अधोवस्त्र बनाली के पुष्ट नितम्बों पर था । कुश बुद्धि बड़े -बड़े पादप पत्तों और पुष्पित लताओं से गुथा हुआ एक अधोवस्त्र पहने हुये था । उसका विशाल वक्ष और प्रस्तर खण्डों सी कठोर भुजायें निरावरण थीं । उसका लम्बा ऊँचा कद और उसकी स्वप्निल आँखें बिल्कुल ठीक वैसी ही थीं जैसा कि बनाली द्वारा लायी गयी उस मूर्ति में दिखायी पड़ती थीं । नीले कशों का जूड़ा बांधे बनाली लम्बाई में कुश बुद्धि के कन्धों तक पहुँच रही थी । दोनों उठकर खड़े हुये कि बस्ती में जाकर आने वाली वरसात से से अपनी रक्षा करें पर तीब्र वायु के झोंके के साथ एक गहरी बौछार फिर और गहरी ,फिर और गहरी और फिर मूसलाधार वर्षा ,बादलों की भीषण गड़गड़ाहट ,बिजली का ताण्डव नृत्य और गर्जन -तर्जन । बनाली नें कहा सखा मूर्तिकार इसी आच्छादन के नीचे वट राज की रक्षा में हम आज अपनी रजनी काटेंगें । हे कलाकार तुम कुश बुद्धि के नाम से जाने जाते हो बताओ इस तड़ित संचालन का नियामक कौन है ? कुछ सोचकर कुश बुद्धि नें कहा , " dhyos "(ज्योति या ज्योति का आदिम उच्चारण ) फिर बनाली नें पूछा नीरज मालाओं का संचालक कौन है ?कुश बुद्धि नें फिर कुछ सोचकर कहा ,"द्योस " फिर बनाली नें पूछा वायु को कौन गतिमान कर रहा है ?वन के वृक्ष और लताएँ किसकी वन्दना कर रही हैं ?श्रष्टि का संचालक कौन है ?कुश बुद्धि नें तड़ित छवि रजित मेघों की ओर देखते हुये उत्तर दिया ,"द्योस ,द्योस ,द्योस "अब बनाली नें एक अन्तिम प्रश्न किया मैं कौन हूँ ?मुझे वक्ष देकर प्रकृति मुझे क्या कहकर सम्बोधित करती है ? मेरे नील केशों में किस माता का वर्ण झलक रहा है ? प्रेमातुर मेरे नेत्रों में किसकी गरिमा झाँक रही है ?मुझे बनाली कहकर सम्बोधित किया जाता है। हे मानव सभ्यता के प्रथम कलाकार और ऋषि परम्परा के अग्रज तुम मुझे किस नाम से पुकारोगे ? कुश बुद्धि नें अपने बड़े -बड़े नेत्रों को कुछ देर के लिये बन्द किया और फिर कुछ सोचकर बोला ,"धूमा ,धूमा, धात्री ,धारिणी "। और आकाश और धूमा का, द्योस और धारित्री का वह मिलन मानव सभ्यता के इतिहास की आधारशिला रख गया । ललित कलायें ,धर्म और विज्ञान सभी जन्म ले चुके थे अब केवल उनका पल्लवन शेष था ।
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सदस्य कार्यकारिणीमिथिलेश वामनकर said…
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