अपने ही छाँव तले मुझ को गुज़र जाना था
आग फैली थी हर इक सिम्त मगर जाना था
कितनी रानाइयाँ सज धज थी तेरी महफ़िल में
बेसरापा मुझे अनजान शहर जाना था
है नई रस्म यहाँ हाकिम ए दौरां की यूँ
नातवां हो के तेरे दर से गुज़र जाना था
राज़ क्या क्या थे निहाँ वक़्त के साये में मगर
छेड़ कर तान वही फिर से बिखर जाना था
बैठ कर शीश महल से जो न देखा तुमने
आग का गोला था जिस को के शरर जाना था
हाल अपना…
ContinuePosted on February 26, 2019 at 6:52pm — 8 Comments
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