अपने ही छाँव तले मुझ को गुज़र जाना था
आग फैली थी हर इक सिम्त मगर जाना था
कितनी रानाइयाँ सज धज थी तेरी महफ़िल में
बेसरापा मुझे अनजान शहर जाना था
है नई रस्म यहाँ हाकिम ए दौरां की यूँ
नातवां हो के तेरे दर से गुज़र जाना था
राज़ क्या क्या थे निहाँ वक़्त के साये में मगर
छेड़ कर तान वही फिर से बिखर जाना था
बैठ कर शीश महल से जो न देखा तुमने
आग का गोला था जिस को के शरर जाना था
हाल अपना कहीं ग़ैरों से सुना करते हैं
नाम मेरा जो लिया उसने, ख़बर जाना था
हो चुकी बात सभी फिर भी न बदला कुछ भी
हैं मेरे शेर नए कुछ तो असर जाना था
घूमता फिरता रहा भीड़ का हिस्सा बनकर
मुझको ये भी न था मालूम किधर जाना था
(मौलिक अप्रकाशित )
Comment
शुक्रिया ब्रजेश जी
जनाब समर कबीर साहब. बहुत शुक्रिया
बहुत ही उम्दा ग़ज़ल कही है ज़नाब तनवीर जी..
आपके बताए भाव आपके अशआर में बयान नहीं हो पा रहे हैं,बहतर ये है कि इन दो अशआर को ग़ज़ल से ख़ारिज कर दें ।
6ठे और 7वें शैर में आप क्या कहना चाहते हैं,इनका भाव(मफ़हूम)बताएं ।
बहुत शुक्रिया जनाब समर कबीर साहब,
छठवें और सातवें शेर की इस्लाह के सिलसिले में थोड़ी वज़ाहत और करें तो शायद बात समझने में सहूलत हो।
जनाब तनवीर जी आदाब,ओबीओ के तरही मिसरे पर ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
'अपने ही छाँव तले मुझ को गुज़र जाना था'
इस मिसरे में 'छाँव' शब्द स्त्रीलिंग है,इसलिए 'अपने' की जगह "अपनी" कर लें ।
'बेसरापा मुझे अनजान शहर जाना था'
इस मिसरे में क़ाफ़िया दोष है,सहीह शब्द है "शह्र"और इसका वज़्न 21 होता है,देखियेगा ।
'है नई रस्म यहाँ हाकिम ए दौरां की यूँ '
इस मिसरे में 'यूँ' की जगह "ये" शब्द उचित होगा ।
'हाल अपना कहीं ग़ैरों से सुना करते हैं
नाम मेरा जो लिया उसने, ख़बर जाना था'
इस शैर का भाव स्पष्ट नहीं है ।
'हो चुकी बात सभी फिर भी न बदला कुछ भी
हैं मेरे शेर नए कुछ तो असर जाना था'
इस शैर के दोनों मिसरों में रब्त नहीं है ।
गिरह ठीक है ।
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