जब आत्मग्लानि
पार कर जाती है
पीड़ा की पराकाष्ठा
तब मैं हीनभावनाग्रस्त
विचारता हूँ...
शाश्वत रुपी मौत...
मन को कई तर्कों से
कर देता हूँ आश्वाषित
कि जीवन की सार्थकता
मात्र जीवंतता से ही नहीं परिभाषित
कि हर विडंबना का अंत
मात्र मृत्यु से ही है सम्बंधित
कि अनंत के पार मिलूंगा तुम्हें
कि मृत्यु उपरान्त भी
रहूँगा तुम्हारा प्रतीक्षित...
कि अंत के उपरांत भी
रहूँगा सदा तुम्हारा ......
पर जब करना चाहता हूँ…
Added by अभिवृत अक्षांश on March 25, 2014 at 5:30am — 1 Comment
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