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राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने-४९

मेरी मां मुझे रोज़ १० पैसे देती थी, स्कूल जाने के पहले. वही बहुत था मेरे लिए टिफ़िन में पाचक खरीद के खाने के लिए- एक पैसे के न जाने कितने हुआ करते थे, सफ़ेद अथवा पीले-सुनहरे रंग की पारदर्शी प्लास्टिक की पन्नी में, बच्चों की उँगलियों से भी बहुत पतले और सतर, ...लम्बे लिपटे हुए.  

 

कुछ न सही तो कभी लेमनचूस की अंडाकार चपटी गोलियां ही सही.... संतरे के रस अथवा कालेनमक के स्वाद वाली नारंगी-बैंगनी गोलियां जिन्हें खा कर हमारी जीभ का रंग भी बदल जाता था और हम जीभ निकाल-निकाल के अपनी बहन से, जो मेरे साथ ही पढ़ती थीं,  पूछते थे कि जीभ का रंग बदला कि नहीं जैसे ये लेमनचूस के शुद्ध और खालिस होने की कोई पहचान हो.  

 

और हाँ, वो काले और स्लेटी रंग का सीधे चाट के खाए जाने वाला चूरन- तल्ख़ और मुंह की नाड़ियों को झनझना देने वाले जायके वाला. दस पैसे की टिफ़िन में खाई जाने वाली चीज़ों की कल्पनाओं का संसार बहुत लंबा था.

 

सं १९७१ में जमशेदपुर के माधो सिंह मेमोरियल हाई स्कूल में रोज़ाना स्कूल जाने के लिए मां के द्वारा दी गई १० पैसे की रिश्वत बहुत बड़ी बात थी मेरे लिए. हांलाकि, बहुत उदास होके इस सच का सामना भी करना पड़ा कि ये रिश्वत भी जल्द ही बंद हो गई और हम बस पढ़ने के लिए स्कूल जाने लगे.

 

© राज़ नवादवी

भोपाल मंगलवार १४/०५/२०१३

पूर्वाह्न्न ११.४६ बजे         

 

   

Views: 357

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Comment by राज़ नवादवी on July 16, 2013 at 7:52pm

बागी जी धन्यवाद, आपने सच कहा! 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 16, 2013 at 7:41pm

बचपन हर गम से बेगाना होता है :-)))

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