जुलाई की एक सर्द और भीगी-भीगी सी शाम आस्ताने (चौखट) पे आके खड़ी थी अन्दर आने को, दिन के उजाले कब के जा चुके थे दरीचों के रास्ते, बस बादलों के पीछे जैसे उनके सायों ने कुछ देर के लिए शाम के वुजूद को नुमूदार (ज़ाहिर) कर रखने का एहसान किया हो. कूचों में बहती पानी की धारें नालियों में जाके गिर रही थीं, तो नालियों में बहते तेज़ चश्मे (झरने, पानी के रेले) की घरघराहट आने वाली सन्नाटगी का खमोशियों से ऐलान कर रही थी. कभी-कभार किसी शख्स के गुजरने की आवाज़ उसके भारी जूतों की चरमराहट से कानों से आके टकराती थी....एहसास होता था कि अपने तनहा कमरे के बाहर भी कायनात (सृष्टि) ज़िंदा है.
बिजली कब से गुल थी....और चश्मा कहाँ रखा था, याद नहीं. मोमबत्ती और माचिस की एक नाबीना (नेत्रहीन) की सी तलाश जवाँ होती जा रही रात के मुतनासिब (अनुपात में) मेरे खुद के उम्रदराज़ होते जाने के एहसास को पुख्ता कर रही थी. मेरी ही तरह नाबीना हो गए आईने के सामने खड़ा होकर मैं सोच रहा था कि गुज़रते हुए दिन और पल-पल ढलती रातें कितनी तवील (लम्बी) होती हैं जबकि गुज़रा हुआ एक पूरा का पूरा ज़माना, और सच कहें तो पूरी की पूरी तारीख (इतिहास) मुख़्तसर (संक्षिप्त) लगती है.
कब हम बारिश में आख़िरी बार जले थे साथ साथ, कब तुम्हारी नर्म साँसों ने मेरे क़ल्ब (ह्रदय) के जोशोहैजान (उमंग और आवेश) को पुरसुकूं (शांत) किया था, कब तुम्हारी एक बेबाक, बेसाख्तगी (बनाव श्रृंगार का न होना) सी भूली-भूली नज़र ने मेरे माज़ी (अतीत) की फरामोशियों को (भूली हुई बातों को) यकलख्त (अचानक) ज़िंदा कर दिया था- कब ऐसा हुआ था आखरी बार?
क्या मैं अपनी तनहाइयों की वीरान हवेलियों को तुम्हारी यादों के चहचहाते परिंदों से भर सकता था?
© राज़ नवादवी
भोपाल बुधवार १०/०७/२०१३ सायंकाल
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