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कुछ दिनो से
ये शहर लगता उदास है
उपर से शान्त पर
अन्दर से बना आग है.
कुछ दिनो से
सान्झ होते ही
खिडकिया और दरवाजे
हो जाते है बन्द
और लोग अपने ही घरो मे
होकर रह जाते है कैद.
कुछ दिनो से
लगता ही नही कि
रहता है यहा कोई आदमी भी
चारो ओर होती है खामोशी
और खामोशी के दौर मे
हवा का शोर होता है.
कुछ दिनो से
इस शहर मे
चलती हवा ऐसी है
कि घुटन लगती है
चारो ओर अजीब सी
गन्ध मिलती है.
कुछ रोज से ये शहर
लगता विरान है
चन्द दिनो पहले जो घर था
अब लगता सिर्फ मकान है.

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 26, 2010 at 4:02pm

वोह क्या हो गया है इस शहर को ?

संजीव जी, अच्छी कविता है किन्तु कुछ अधूरापन सा लगता है, नजरेशानी की आवश्यकता है |धन्यवाद ...

कृपया ध्यान दे...

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