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(हर नारी मिनौती है .. यहाँ दृश्य अरुणाचल का है , इसलिए बांस, धान , सूरज , सीतापुष्प , पहाड़ के बिम्ब भी उसी प्रदेश के हैं. बरई, न्यिओगा वहाँ के लोक जीवन से जुड़े गीत हैं - जैसे हम बन्ना- बन्नी , आला , बिरहा से जुड़े हैं ... इस संगीत को बांसों से जोड़ा है .. जैसे बांस के खोखल से निसृत होकर ये मिनौती की आत्मा में पैठ गए हैं ... नारी के मन और आत्म को समझाते हुए पुरुष से अंतिम प्रश्न पर कविता समाप्त होती है ...)
मेरे बांस

पहचानते हो मिनौती( एक बाला का नाम ) को
तुम्हारी और मेरी आत्मा एक सरीखी है-
इस खोखल से
सर्रसर्र करती हवाओं ने बजना सीखा है
छिल-छिल कर सरकंडों में गुंथी
जीवन की टोकरियाँ
जिनमें वे भर सके
आराम ..
आज भी तुम्हारी बांसुरी से
गुज़र जाते हैं
बरई, न्यिओगा(अरुणाचल के लोकगीत )
मेरी सलवटों में उलझे
कितनी तहों के भीतर
छलकते आंसुओं की तलौंछ के नीचे
दबे-दबे से स्वर

मेरे सीतापुष्प (ऑर्किड )
तुम्हे याद होगा मेरा स्पर्श-
अपने कौमार्य को
सुबनसिरी (अरुणाचल की नदी ) में धोकर
मलमल किया था
और घने बालों में तुम
टंक गए थे
तब मेरी आत्मा का प्रसार उस सुरभि के साथ
बह चला था
एक वसंत जिया था दोनों ने

मिट्टी तुम क्यों घूर रही हो -
इन झुर्रियों के नीचे
अभी भी सूरज जलता है (अरुणाचल में सूरज स्त्री रूप है और चाँद पुरुष )
जिसके दाह से
तुम प्रसव करती रही हो
क्षिप्र सफ़ेद धान का
जैसे धूप सफ़ेद होती है
तुम्हारे बीज से
मेरी प्रसव पीड़ा से
धैर्य पाया था सृजन का |

चीड़-चीनार में खोये पहाड़
तुम्हारी हरी पटरियों पर
मेरे चुप पैर आहट देते रहे हैं
ताकि तुम्हारा खोयापन
अकेला न रह जाए
इस विशाल समृद्धि में
तुम्हारा विस्तार मेरी सीमाओं में बंधता रहा है
अपने होने की मीमांसा करोगे ?
मेरा चुप रहना ही ठीक I


अपर्णा

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Comment by आशीष यादव on September 7, 2011 at 10:24pm

नई उपमाओं से सजी कविता बिलकुल सजीव हो उठी है| wahan का लोक जीवन बड़े सजीव अंदाज में प्रस्तुत किया है आपने| हमेशा आपकी कविताओं में एक नयापन मिलता है| मेरे ख़याल में गद्य कविता का यह एक बेहतरीन उदहारण है|
आपकी लेखनी को नमन है|

Comment by mohinichordia on September 7, 2011 at 10:02pm

लोक जीवन से जुडी कविता,वंहा की माटी की सुगंध से भरपूर |बधाई अपर्णा जी 

Comment by arvind pathak on May 24, 2011 at 5:45pm

AparNa ji,

bahut sundar, aise hi aur paDhne ki abhilasha hai,

wishes,

arvind

Comment by Dr Nutan on November 8, 2010 at 8:26pm
aparna ji aapka yah sankalan yaha par bahut sundar aur sughad dikh raha hai... kavita to umdaa hoti hee hai aapki..kinto in chitro ke saath aapka page bahut achha lag raha hai..
Comment by Aparna Bhatnagar on October 17, 2010 at 2:54pm
vijay parv ki hardik shubhkamnaen! Ganesh ji...

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 17, 2010 at 10:42am
नये नये बिम्ब और प्रतिको के साथ कविता की रचना नयापन की तरफ ले जाती है, अच्छी कविता है , विजय पर्व दशहरे की बधाई स्वीकार करे |

कृपया ध्यान दे...

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