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आज एक ही ढर्रे पे चलना चाहता  है कौन?
सभी को है चाह परिवर्तन की, मुखर हो या मौन |

खोजते है कोई द्वार या रास्ता चाहे हो संकरा सा ..
नयी राह तराशें क्यों? कहाँ वक़्त और तलाशे भी कौन?

चक्र से उबरना भी हैं चाहते और चक्र को बचाना भी ...
तोड़ दिया तो फिर भला फंसेगा कौन?

प्रतिद्वंदिता इससे-उससे और स्वयं से..
पर प्रतिद्वंदिता है क्यों ? सभी मूक..मौन..

दौड़ते हैं, भागते हैं एक अनजान शिखर के लिए..
आज तक वो शिखर, दौड़ के पाया है कौन?

जिसने भी पाया उस दिव्यता के शिखर को..
उसने दौड़ को त्याग, धरा मौन..

कितने हैं आज उस दिव्यता के आस-पास भी ..
आज वो भी नहीं जो गए रुक  या हैं मौन...

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Comment by Dheeraj on May 10, 2011 at 1:08pm
दौड़ते हैं,भागते हैं एक अनजान शिखर के लिए..
आज तक वो शिखर, दौड़ के पाया है कौन?

जिसने भी पाया उस दिव्यता के शिखर को..
उसने दौड़ को त्याग, धरा मौन..
अच्छी रचना है लता जी .... शायद सच को ही अपने शब्दों में पिरोने की कोशिश की है .... हां आज की भागमभाग वाली जिंदगी में सब दौड़ ही तो रहे है .... कुछ जीने के लिए तो कोई कुछ पाने के लिए ..... और शायद बहुत कोई खुद से खुद को बहकने के लिए

और जहा तक दिव्यता की बात है तो मुझे लगता है की आज दिव्यता की परिभाषा ही बदल गयी है इसलिए लोग अब अपने अन्दर न झक कर मंदिर मस्जिद और बाबाओ के आश्रम में ढूंढ़ रहे  है दिव्यता

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