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चुप है समय,
दिशाओं के अनुमान में,
भ्रमित और आहत है मन
सत्य के संधान में,
शब्द करते हैं सवारी,
नुकीले अस्त्रों की,
शब्द,
बनना चाहिए था
जिन्हें मरहम!
अंगुलियां उठती हैं
सामर्थ्य पर;
थाम सकतीं थीं जो,अशक्तता ...
अंगुलियां जो,ढाल सकतीं थीं
दहकते लावे को
फूल की शक्ल में; शून्य हैं ऑखे,
ऑखे, जो संजो सकतीं थीं
पल-पल का इतिहास,
आहत है मन,
जो प्रहरी था सच का,
निःशब्द है अपने आखेट पर,
अभी समय नहीं है,
रूदन का.....
समय है स्व को,
जांचने, परखने, तौलने का,
नियति के सब बांट तराजू,
ओछे पड़ जाएँ तो भी...
विधाता का हाथ,
कांप-कांप जाए तो भी
जीवन भर की सहेजी, आस्थाएं,
बिखर जाएँ,
तो, भी .....समय नहीं है
रूदन का.....!
अन्विता

मौलिक एवं अप्रकाशित ।

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Comment

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Comment by Anvita on June 15, 2020 at 7:28pm
आदरणीय समर कबीर साहब प्रणाम ।रचना की सराहना के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद ।स्वयं को दूसरों की रचना पर टिप्पणी योग्य मानती तो नहीं फिर भी आगे से कोशिश जरूर करूँगी ।सादर अन्विता ।
Comment by Samar kabeer on June 15, 2020 at 6:46pm

मुहतरमा अन्विता जी आदाब, अच्छी रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें ।

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